________________
१०२
मंजिल के पड़ाव
होती है। पानी को दुर्लभ द्रव्य माना गया है। औषध, कपड़े और स्थान की जरूरत होती है । इन अनेक अपेक्षाओं को पूरा कौन करे ? जिसमें उपग्रह की क्षमता नहीं है, वह इन आवश्यकताओं को पूरा नहीं कर सकता। इन भावश्यकताओं को पूरा करने वाले को 'वृषभ' का दर्जा दिया गया । सब साधुओं में यह क्षमता समान नहीं होती। निर्जरा
तीसरा प्रयोजन है-निर्जरा। यह व्यक्तिगत दृष्टि से भी मूल्यवान् है । वह सोचे-मैं पढ़ाऊंगा तो निर्जरा होगी, मुझे लाभ होगा और मेरी आत्मशुद्धि होगी। श्रुत का पर्यवज्ञान
चौथा प्रयोजन है-मेरा श्रुत पर्यवज्ञात होगा, निर्मल और परिपक्व बनेगा । दूसरों को पढ़ाने पर ही पता चलेगा-मुझे ठीक आता है या नहीं ? दूसरों को पढ़ाए बिना इसका पता नहीं चल सकता। श्रुत को अव्यवच्छित्ति
पांचवां प्रयोजन है-श्रुत की अव्यवच्छित्ति । इससे श्रुत का विच्छेद नहीं होगा। प्राचीन परंपरा में श्रुत कंठस्थ परंपरा से चलता था । आश्चर्य की बात है-इतनी बड़ी ज्ञान राशि को कंठस्थ के आधार पर कैसे जीवित रखा गया । खोया कम नहीं है, पर सुरक्षित भी बहुत है। कंठस्थ की परंपरा
भगवती जैसा विशाल ग्रंथ, जिसका ग्रन्थमान सोलह हजार पद्य माना जाता है, उसे कंठस्थ परंपरा से कैसे जीवित रखा गया ? यह आश्चर्य की बात है । वैदिक, बौद्ध और जैन-तीनों परंपराओं में ही कंठस्थ रखने की परंपरा रही । कहा जाता है-मुनि यशोविजयजी ने शार्दूल विक्रीडित छंद में निबद्ध सात सौ श्लोक एक दिन में कंठस्थ कर लिए । आज भी वैदिकों में कुछ वेदपाठी ऐसे हैं, जिन्हें वेद कंठस्थ हैं । बौद्धों में भी कुछ भिक्षु ऐसे हैं, जिन्हें आज भी तीनों पिटक याद हैं। जैन धर्म में भी कंठस्थ करने की परंपरा रही है । चौदह पूर्व का ज्ञान कठस्थ था। इस संदर्भ में बतलाया गयाअगर मैं दूसरों को नहीं पढ़ाऊंगा तो श्रुत की परंपरा विच्छिन्न हो जाएमी। इसी कारण मुनि दूसरों को पढ़ाता है। परंपरा लुप्त न हो जाए
__आचार्य भद्रबाहु ने महाप्राण ध्यान की साधना शुरू की। संघ ने सोचा-भद्रबाह नहीं रहेंगे तो ज्ञानराशि भी विच्छिन्न हो जाएगी। इसकी चिन्ता रहती है आचार्य को। संघ का भी यह दायित्व होता है हमारे
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org