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मंजिल के पड़ाव
होना वांछित नहीं है । दोष में संभागी होना प्रिय लगता है।
यह जो मनोवृत्ति है, मानवीय दुर्बलता है, उसे मिटाए बिना जीवन में सज्जनता, साधुता या महानता का उदय नहीं हो सकेगा । हम प्रमोद-भाव को समझे. उसका विकास करें। इससे अपना विकास होगा, धर्मसंघ का विकास होगा। यह विकास का सूत्र है, बोधि और संबोधि का सूत्र है।
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