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________________ मंजिल के पड़ाव जाएगा । आज छोटे-छोटे व्यक्ति अपने आपको बहुत मानने लग गए हैं, अपनी होशियारी में मोह का मिश्रण करने लग गए हैं। यह स्वाभाविक है, क्योंकि शुद्ध-ज्ञान का प्रयोग करना बड़ी तपस्या के बाद आता है । बहुत साधना के बाद उपलब्ध होता है केवल ज्ञान । सामान्यतः जैसे ही ज्ञान शुरू होता है, उसमें राग-द्वेष की धारा मिल जाती है और उसी में ईर्ष्या, क्लेश आदि की छोटी-छोटी नलियां मिल जाती हैं । जो जैसा है, उसे वैसा जानना हमारे भाग्य में कहां लिखा है ? हम उसमें बहुत गंदगी मिला देते हैं। यथार्थ सूत्र यह सूत्र कितना यथार्थ है-जो अहंत या वीतराग का अवर्णवाद बोलता है. वह बोधि को दुर्लभ बना लेता है। गोशालक ने आर्द्रककुमार से महावीर के बारे में बहुत कुछ कहा। गोशालक ने कहा-आर्द्र ककुमार ! तुम महावीर के पास जा रहे हो? क्या तुम नहीं जानते कि महावीर जैसा ढोंगी आदमी कोई नहीं है। महावीर पाखडी हैं। जो महावीर अकेले रहते थे, लंबी-लंबी तपस्याएं करते थे, उन्होंने अब संघ बना लिया है। कहां रहे वे महावीर ? गोशालक ने महावीर की वीतरागता पर स्पष्ट आक्षेप किए । हम सचाई कहां ढूंढे ? एक वीतराग के बारे में भी ऐसा कहा जा सकता है । अवीतराग के बारे में कुछ कहा जाए तो आश्चर्य क्यों होना चाहिए ? इस प्रकार की चेतना और मनोवृत्ति को देखते हैं, तो दुनिया बड़ी विचित्र लगती है। धर्म का अवर्णवाद व्यक्ति अर्हत् का ही नहीं, अर्हत् प्रज्ञप्त धर्म का भी अवर्णवाद बोलता है। कैसा धर्म चलाया है ? कितना नीरस और रूखा है ! कोई सरसता नहीं है। कष्ट ही कष्ट झेलना होता है । कितना अव्यावहारिक है धर्म ! क्या ऐसे शरीर चलेगा ? भोजन पर भी नियंत्रण, कपड़े पर भी नियंत्रण । यह कैसा धर्म है ? यह धर्म का अवर्णवाद है। ऐसी भावना जागती है कि व्यक्ति विशेषता में भी कमी खोज लेता है । यह दृष्टिकोण और चेतना का अन्तर है। आचार्य, गण और देव तीसरा विकल्प है--आचार्य और उपाध्याय का अवर्णवाद । जब व्यक्ति अहंत को भी नहीं बख्शता, तब आचार्य को कैसे बख्शेगा? लोग भिक्षु स्वामी का नाम जपते हैं। स्वार्थ नहीं सधता है तो उन्हें भी कोसने लग जाते हैं । यह भारोपण की जो हवा चलती है, उसका विवेचन या परीक्षण करना बहुत कठिन होता है। व्यक्ति आचार्य या उपाध्याय की ही नहीं, चतुर्विध संघ की भी आलोचना कर देता है । यह भवर्णवाद का चौथा विषय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003088
Book TitleManjil ke padav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages220
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size9 MB
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