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बोधि दुर्लभता
अवर्ण का विषय बन जाता है । हम उदाहरण लें महावीर का । महावीर अर्हत् थे । उनका भी अवर्णवाद किया गया । चरवाहा आया महावीर के पास | महावीर ध्यान में खड़े हैं। चरवाहा कहकर चला गया - देखो ! ध्यान रखना, कहीं मेरे बैल इधर-उधर न चले जाएं । महावीर अपनी ध्यानमुद्रा में थे । बैल इधर-उधर हो गए । चरवाहा वापस आया । बैल वहां नहीं थे । उसने महावीर को कोसा - लगता है, तुम्हारी नीयत खराब हो गई है, बैल चुराना चाहते हो ? चरवाहे ने महावीर पर आरोपण कर दिया ।
आरोपण की दुनिया
यदि आरोपण नहीं होता, तो हमारी दुनिया बहुत साफ-सुथरी होती । आरोपण की वृत्ति ने दुनिया को मैला बना दिया । कोई यथार्थ और सचाई तक नहीं पहुंचता, वस्तुस्थिति को नहीं जानता । अपने मन में गहराए सन्देह के कारण दूसरों पर आरोपण कर देता है । महावीर पर बैलों की चोरी का आरोपण कर दिया गया। इस दुनिया में न जाने कितनी बातें होती हैं । कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं है, जो अपने आपको भोला मानता है । बहुत भोला व्यक्ति भी अपने आपको सबसे होशियार मानता है और दूसरों को भोला मानता है । यह एक विपर्यय है— कमजोर आदमी स्वयं को बहुत शक्तिशाली मानता है और दूसरों को कमजोर मानता है। जहां पर यह आरोप और अपवाद की चेतना है, जो है, उसे नहीं मानने की मनोवृत्ति है वहां यह सब चलता है । आरोप और प्रतिवाद की दुनिया में आरोप और अपवाद ही चलता है इसीलिए हम प्रत्येक बात को आरोपण करके ही देखते हैं । हमारी दृष्टि ऐसी शुद्ध नहीं है कि हम किसी वस्तु को शुद्ध दृष्टि से भी देख सकें। हम पहले आरोपण करते हैं, फिर देखते हैं । यदि आरोप रहित दर्शन हो जाए, तो प्रेक्षा की जरूरत ही क्या रहे ? जहां कोरा दर्शन है, आरोपण नहीं है, उसका ही नाम है प्रेक्षा । जहां सब्जेक्टिव और ऑब्जेक्टिव का भेद समाप्त हो जाए, वहां वस्तु का शुद्ध दर्शन होता है ।
मिलावट है ज्ञान में
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समस्या यह है - ऐसा आरोपण विहीन ज्ञान नहीं है । कारण यही है, हमारा ज्ञान बहुत मिश्रित होता है । उसमें बहुत मिलावट होती है । दर्शन में मिलावट नहीं होती । बौद्ध दर्शन में माना गया — निर्विकल्प ज्ञान प्रत्यक्ष है और वही प्रमाण है । विकल्प को प्रमाण नहीं माना गया। जहां भी ज्ञान हुआ वहां कई बातें मिल जाएंगी। हम केवल ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से काम नहीं लेंगे । इसमें मोहनीय कर्म की मिलावट होगी । जब मोहनीय कर्म मिलेगा, तब कितना
राग-द्वेष और पक्षपात जुड़
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