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व्यवस्था का अभाव : विग्रह का जन्म
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धारण करता है । यदि वह समय-समय पर शिष्यों को उन रहस्यों को पढ़ाता नहीं है तो विग्रह पैदा होता है। आज अनेक साधु-साध्वियां इस भाषा में सोचते हैं-जैन विश्व भारती में जाएं, प्रशिक्षण लें। आ सकते हैं या नहीं, यह अलग स्थिति है, पर दस-बीस साधु-साध्वियों की यह भावना हमारे पास पहंची है । कारण क्या है ? जो आचार्य श्रुत-पर्यायों को जानता है, धारण करता है, वह शिष्यों को उनकी वाचना नहीं देता है, तो वहां विग्रह खड़ा हो जाता है। योगक्षेम वर्ष में जो स्वाध्याय-अध्ययन का क्रम चला, वह गण की मजबूती का या संघ में विग्रह न हो, इसका एक बहुत महत्त्वपूर्ण क्रम था। इससे साधु-साध्वियों को यह सन्तोष रहता है-हम दरिद्र नहीं हैं। . . संघ में क्यों रहें?
आचार्यवर सौराष्ट्र की यात्रा कर रहे थे। वहां अनेक संघों की साध्वियां मिलीं। उन्होंने अपनी भावना व्यक्त की-महाराज ! क्या करें ? हमारे संघ में साधु तो रहे नहीं, केवल साध्वियां हैं। हमें कोई पढ़ाने वाला नहीं है । उन्होंने प्रश्नों का तांता लगा दिया । ऐसा क्यों हुआ? कारण यही था-उनके प्रश्नों का उत्तर देने वाला कोई नहीं था।
___ जब आचार्य या उपाध्याय श्रुतधर नहीं होता है, श्रुतदाता नहीं होता है, तब उनके शिष्यों में कितनी विपन्नता या दरिद्रता की स्थिति होती है ! जो श्रुत-पर्यायों को धारण करता है, वह आचार्य यदि यह सोचे-मैं अगर दस-बीस शिष्यों को तैयार कर दूंगा तो लोग कहेंगे-देखो ! कितने अच्छे बोलने वाले हैं। मेरी अवमानना होगी। इसलिए अच्छा है, मैं इनको तैयार ही न करूं। इस स्थिति में शिष्यों में विग्रह हो जाता है । वे सोचते हैं-आचार्य हमें बताते नहीं हैं, सिखाते नहीं हैं । ऐसे संघ में हमें क्यों रहना चाहिए। रत्नाधिक का सम्मान
विग्रह का एक कारण है-गण में जो दीक्षा-पर्याय में बड़े साध हैं, रत्नाधिक हैं, उनका सम्मान न करना । यह विग्रह का एक बड़ा कारण है। भगवान् महावीर के समय में भी कुछ ऐसी स्थितियां आई थीं-जो बड़े कुल में पैदा होते, वे छोटी जाति वाले मुनि को वंदना नहीं करते थे। भगवान ने उपदेश दिया-जो गोत्र या जाति का अभिमान करते हैं, वे स्वयं छोटे बन जाते हैं । आचार्य भिक्षु ने प्रारम्भ से ही अपने दो साधुओं को संघ में सबसे बड़ा रखा । वह इस सूत्र की अनुपालना है । तेरापन्थ की परम्परा है-जब बड़े साधु विहार कर आते हैं, तब आचार्य भी अपना आसन छोड़कर उन्हें वन्दना करते हैं । यह सम्मान की परम्परा है। जिस सघ में यह नहीं है, वहां बड़ी विचित्र स्थिति बन जाती है।
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