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और शाखाएं हैं । एक है मूल भाग, जहां जड़ है । अगर उपचार का किया जाएगा, तो समस्या का समाधान नहीं होगा । जब तक फिर हरे होते जाएंगे । मूल उपचार करना है जड़ का । उसे यह है क्रियावाद का सिद्धान्त ।
मंजिल के पड़ाब
फूलों- पत्तों वृक्ष हैं वे पकड़ना है ।
भगवान् महावीर को मूलस्पर्शी सिद्धान्त का प्रणेता माना जाता है । किसी भी समस्या के मूल कारण का जब तक समाधान नहीं होता, तब तक कुछ भी नहीं हो सकता । ऊपरी या अस्थायी समाधान ज्यादा टिक नहीं
पाता ।
पारिग्रहको क्रिया
दूसरी क्रिया है परिग्रह की क्रिया । वस्तु का संग्रह करना यह मूल समस्या नहीं है । मूल समस्या है परिग्रह की एक अवधारणा बनना । एक ऐसा संस्कार हमारे भीतर है, जो निरंतर संग्रह करने की प्रेरणा दे रहा है । एक सेठ मर गया । लड़के ने पूछा- मुनीमजी ! बताओ । सेठजी ने कितना धन जमा किया है ? मुनीमजी ने बताया - सात पीढ़ी बैठकर खाएं इतना धन छोड़ गए हैं। लड़का उदास होकर बोला- आठवीं पीढ़ी का क्या होगा ?
यह आठवीं पीढ़ी की अवधारणा बनी, तब समस्या आई । जो भीतर में परिग्रह का संस्कार है, जब तक उसका परिष्कार नहीं होगा, तब तक कुछ नहीं होगा । वह साधु भी बन जाए तो परिग्रह की वृत्ति नहीं छूटेगी । अप्रत्याख्यान क्रिया
जब हम काम करते हैं तभी क्रिया होती है । यह गलत धारणा है । इस धारणा को तोड़ने के लिए अप्रत्याख्यान क्रिया पर ध्यान देना होगा । अप्रत्याख्यान क्रिया हमारे अन्तरंग का प्रश्न है । अविरति छूटी नहीं है भीतर में एक इच्छा बराबर विद्यमान है । इस आधार पर हम समझ सकते हैं- -पांच क्रियाएं या पच्चीस क्रियाएं - अविरति के ही दो रूप हैं । एक रूप है बाहर का और एक रूप है भीतर का । बाहर का रूप जब आचरण में आता है, तब हम कहते हैं—क्रिया हो गई । दूसरा रूप है भीतर का । एक आदमी कोई प्रत्याख्यान नहीं करता, किन्तु उसमें सदा लालसा बनी रहती है । वह शब्द रूप, रस, रंग और पदार्थ का संग्रह करता रहता है । इसका कारण है - अप्रत्याख्यान क्रिया भीतर में काम कर रही है । जब तक विषयों के प्रति भीतर में अरुचि पैदा नहीं हो जाती, तब तक अप्रत्याख्यान क्रिया काम करती रहती है ।
क्रिया : दो रूप
क्रिया का विश्लेषण करें तो साफ होगा - क्रिया का एक वह रूप है,
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