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मंजिल के पड़ाव
तत्वों को नहीं जानता, वह क्रियावाद की व्याख्या नहीं कर सकता । असाण जो जाणइ जो य लोगं, जो आर्गात जाणइ णागति च । जो सासयं जाण असामयं च जाति मरणं च चयणोववातं ॥ अहो वि सत्ताण विउट्टमं च, जो आसवं जाणति संवरं च । दुक्खं च जो आपइ णिज्जरं च, सो भांसिउमरिहति किरियवादं ॥ कारक भीतर है
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क्रियावाद की व्याख्या के लिए हमारे आन्तरिक तत्त्व हैं - सवर, निर्जरा, बन्ध, पुण्य-पाप ओक हमारी आत्मा । इन सबको जाने बिना कर्मवाद की व्याख्या नहीं की जा सकती । इन सारे संदर्भों को देखें तो निष्कर्ष की भाषा यह आएगी --जो आचरण और व्यवहार के लिए अन्तरंग कारण को जिम्मेदार मानता है वह क्रियाबादी है और जो केवल परिस्थिति को जिम्मेवार मानता है, वह अक्रियावादी है । भगवान् महावीर क्रियावादी थे, क्रियावादियों में भी प्रमुख थे। उन्होंने आत्मा और कर्म का प्रतिपादन किया । कर्म हमारे भीतर में हैं। शरीर विद्यमान है । उसके प्रकंपन हमारे सारे व्यवहार का संचालन करते हैं। दो सगे भाई हैं। एक हिंसा करता है, दूसरा नहीं करता। ऐसा क्यों ? दो सगे भाइयों में इतना अन्तर क्यों ? दोनों को समान परिस्थिति मिली, एक जैसा पालन-पोषण मिला, समान खाद्य-पदार्थ मिला फिर यह अन्तर क्यों ? एक जयघोष बन गया और एक विजयघोष बन गया । एक युद्ध की भूमि में हिंसा कर रहा है, एक अहिंसा का प्रचार कर रहा है, इसका कारण क्या है ? इसका कारण भीतर में खोजना होगा । क्रिय: गति
महर्षि पतंजलि के अनुसार वह कारण है वृत्ति । उसे संज्ञा कहें या कि कहैं । मूलतः क्रिया का अर्थ रहा है गति । तत्त्वार्थ सूत्र में पांच अस्तिकायों का वर्णन है। तीन अस्तिकाओं को निष्क्रिय बताया गया है। अक्रिया का अर्थ गतिशून्य भी है। गति है तो क्रिया है अन्यथा क्रिया नहीं है । हमारे भीतर में एक गति हो रही है. निरंतर उसके प्रकंपन चल रहे हैं। वे हैं? प्रकपन जब बाहर आते हैं, तब हमें प्रभावित करते हैं । जैसे कर्म के प्रकंपन मीतर से आते हैं, वैसे हो हामास बनते हैं, वैसे ही केमिकल बनते हैं, वैसे ही न्यूरोट्रांसमीटर बनते हैं । मूलत: प्रभावित करने वाले भीतर बैठे हैं । बाहर से तो केवल प्रतिठवनि का रही है
क्रिया पांच प्रकार
क्रियावाद का सिद्धान्त है- मीतर को पकड़ो। भीतर में जो प्रकंपन हो रहे हैं, उन्हें देखना है। यह क्रियावाद मनोविज्ञान की भाषा में
१. सूयगडो, १२ /२०:२१
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