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________________ क्रियावाद धर्म अपने भीतर से फूटता है । बाहर में उसे. जीया जाता है या स्वीकारा जाता है । एक व्यक्ति ने कहा-मैं जैन धर्म को जी रहा था, मुझे बाद में पता चला कि यह जैन धर्म है। धर्म सुनने से ही नहीं मिलता। धर्म बिना सुने भी मिलता है । इस सचाई को हम जान लें तो क्रियावाद और अक्रियावाद की बात समझ में आ जाएगी। क्रियावाद : अक्रियावाद बहुत पुराना सिद्धान्त है क्रियावाद और अक्रियावाद का। आज क्रियावाद और अक्रियावाद का अर्थ ही छूट-सा गया है। यदि आज की भाषा में इसका अर्थ किया जाए तो क्रियावाद का अर्थ होगा-अवचेतनवाद या कर्मवाद और अक्रियावाद का अर्थ होगा-परिस्थितिवाद । जो कुछ हो रहा है, उसमें भीतर का कोई कारण नहीं, सिर्फ बाहरी कारण हैं । हमारा आचरण, व्यवहार या जो घटनाएं घटित हो रही हैं, जीवन में जो कुछ हो रहा है, उसका हेतु है परिस्थिति । जैसी परिस्थिति होगी, वैसा आदमी बन जाएगा। एक दर्शन था, जिसका आधार तत्त्व था-जो भी हमारा आचरण हो रहा है, उसका कारण बाहर में मत खोजो, भीतर खोजो। यह है क्रियावाद का दृष्टिकोण । इसे कर्मवाद भी कहा जा सकता है और मनोविज्ञान की भाषा में अवचेतनवाद भी। मनोविज्ञान में जब तक मनोविज्ञान का विकास नहीं हुआ था, तब तक केवल बाहरी कारण ही खोजा जाता था। विज्ञान के क्षेत्र में मनोविज्ञान ने एक नया दरवाजा खोला-सारी व्याख्या चेतन मन के आधार पर मत करो। जीवन की व्याख्या करनी है तो हमें भीतर में जाना होगा। भीतर में जो अवचेतन मन है, उसके आधार पर जीवन की व्याख्या करो। अन्यथा जीवन की व्याख्या हो नहीं सकती। यह जाने-अनजाने कर्मवाद या क्रियावाद का सिद्धान्त मनोविज्ञान के क्षेत्र में मान्य हो गया । सूत्रकृतांग सूत्र में स्पष्ट निर्देश मिलता है-जो आत्मा, पुण्य, पाप, बन्ध, आश्रव और संवर को जानता है, वह क्रियावाद की व्याख्या करने में समर्थ है । जो इन आध्यात्मिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003088
Book TitleManjil ke padav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages220
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size9 MB
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