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________________ महानिर्जरा महापर्यवसान उद्देश्य एक ही है आज सारी दुनिया में सेवा के मामले में सबसे आगे आता है ईसाई धर्म । सेवा में वह आगे है पर एक बात की कमी है-सेवा के साथ आत्मा और अध्यात्म की बात नहीं बताई जाती । इस सेवा में महानिर्जरा वाली बात नहीं आएगी। वह तब आएगी जब आध्यात्मिकता साथ में जुड़ जाए । व्यक्ति साधु बनता है संवर और निर्जरा के लिए । भगवान् ने स्वयं यह फतवा के दिया-सेवा करने वाला महानिर्जरा करने वाला होता है इसलिए व्यक्ति को यह चिन्ता नहीं होनी चाहिए-मैं साधना कम कर सका, स्वाध्याय कम कर सका । उनका भी उद्देश्य है निर्जरा । सबका उद्देश्य एक ही है। सेवा : व्यापक अर्थ यह बड़ा महत्त्वपूर्ण सूत्र है संगठन और शासन का । यदि संघबद्ध साधना करनी है तो सेवा को महत्त्व देना होगा। यह कर्त्तव्य और बड़ा धर्म है । सेवा के प्रकार अलग-अलग हो सकते हैं । आचार्य के तीन भव माने जाते हैं और मुनि के पन्द्रह । प्रश्न हो सकता है-ऐसा क्यों माना गया ? आचार्य बहुत बड़े सेवक हैं । आचार्य को बहुत बड़ी सेवा करनी होती है । सेवा का मतलब शरीर की सेवा ही नहीं है। सेवा का अर्थ है-जिस मार्ग के लिए मुनि बना है, उसमें सहयोग देना। सबसे उपयुक्त शब्द है सहयोग, परस्परता का निर्वाह करना । आचार्य कितने लोगों को सहयोग देते हैं ? आचार्य इतने बड़े महानिर्जरा महापर्यवसान वाले होते हैं कि तीन भव में ही उनका मोक्ष हो जाए। मुनि में उतना सामर्थ्य नहीं है और उतना करने का अवकाश भी नहीं है इसलिए उसके लिए पन्द्रह भव बतलाए गए। सेवा का व्यापक अर्थ है-पढ़ाना, लिखाना, वाचना देना, संयम में स्थिर करना, चरित्र का विकास करना, आहार-पानी की व्यवस्था करना, संग्रहउपग्रह करना, जीवन का निर्माण करना आदि । यह सारी सेवा है। प्राथमिकता की दृष्टि सेवा के इन प्रकारों को अगर दो भागों में बांट दें तो दो वर्ग बन जाएंगे---सार्मिक की सेवा और ग्लान की सेवा । बीमार और ग्लान की सेवा को भी बड़ा महत्त्व दिया गया । जो शरीर से लान नहीं है, किन्तु उन्हें बहुत सारी अपेक्षाएं हैं, ऐसी सेवा करना भी एक बहुत महत्त्व का काम है। अगर हम प्राथमिकता की दष्टि से चलें तो ग्लान की सेवा जरूरी है। उसके बाद जरूरी है, कुल की सेवा, गण और संघ की सेवा । उसमें सबसे पहले आती है आचार्य की सेवा। संघ और संघपति-ये दो स्वस्थ हैं, तो मागे सारी बातें ठीक चलेंगी। एक कर्तव्य होता है तपस्वी, या शेक्ष क सेवा का। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003088
Book TitleManjil ke padav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages220
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size9 MB
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