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मंजिल के पड़ाव
सिखाना पड़ता है। एक विकल्प है-सार्मिक की सेवा करनी चाहिए । यह दस प्रकार के व्यक्तियों का वर्गीकरण है । विभिन्न अपेक्षाओं के साथ इनका वर्गीकरण किया गया। सब प्रकार की सेवा की बात इसमें आ गई। सेवा का महत्त्व
एक मुनि के मन में प्रश्न उभर सकता है-हम साधु हो गए, मोहममत्व छोड़ा, परिवार छोड़ा, अपनी साधना में लीन रहने के लिए यहां आए हैं और वही झंझट सेवा का करना है, तो फिर फर्क क्या पड़ा? यही करना था तो अपना परिवार, घर, माता-पिता को क्यों छोड़ा ? उनकी सेवा छोड़ी और यहां दीक्षित हो गए पर काम तो वही रहा सेवा करने का आए थे आत्मा का कल्याण करने के लिए और लगा दिया सेवा में। इस प्रश्न के सदर्भ में जब हम महानिर्जरा महापर्यवसान-इस सूत्र को देखते हैं, तब लगता है-घर और परिवार का प्रश्न कहां है ? ध्यान और स्वाध्याय करने वाले के भी निर्जरा होती है किन्तु जितना प्रोत्साहन सेवा को दिया गया, उतना ध्यान और स्वाध्याय को नहीं दिया गया। शायद संगठन और संघबद्धता की दृष्टि से भी ध्यान और स्वाध्याय को उतना मूल्य नहीं दिया गया, जितना सेवा को दिया गया। कारण स्पष्ट है-हमारा विश्वास है संघबद्ध साधना में और संघ को एकीभूत रखने के लिए सबसे बड़ा माध्यम है सेवा । सेवा और संघ
एक भाई ने बताया-मेरे पिताजी अमुक परम्परा में मुनि बने थे। वृद्धावस्था में उनकी सेवा की कोई व्यवस्था नहीं रही। वे तकलीफ पा रहे थे अतः उन्हें वापस घर ले आया । सेवा का महत्त्व बहुत बड़ा है । कुछ माई आचार्यश्री से बोले-वृद्ध साधु-साध्वियों को जहां रखेंगे, वहां हम पांच-सात नौकर रखेंगे, वे उनकी सेवा करेंगे। अपने सुझाव को दोहराते हुए बोलेगुरुदेव ! आपको हमारा यह चिन्तन कैसा लगा? उन भाइयों ने सोचाआचार्यश्री प्रशंसा करेंगे? बीमार हैं साधु-साध्वियां और सेवा करेंगे नौकरचाकर !
आचार्यश्री ने इस सुझाव को अस्वीकार करते हुए कहा-जिस दिन यह बात सोचेंगे, उस दिन संघ-विकास सपना बन जाएगा।
इस स्थिति में साधु-साध्वियों और माता-पिता में फर्क ही क्या रहा ? बूढ़े मां-बाप की सेवा आज कौन करता है ? लड़के तो कर नहीं सकते । उन्हें दुकान पर जाना है, व्यापार-व्यवसाय करना है । सेवा नौकर-चाकर ही करेंगे । जहां इस प्रकार की व्यवस्था होती है, वहां संघ के विकास की बात नहीं सोची जा सकती। संघ-विकास के लिए एक अनिवार्य बात है, सेवा का विकास ।
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