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महानिर्जरा महापर्यवसान
सेवा : प्राचीन परम्परा
जैन शासन में सेवा को अतिरिक्त मूल्य दिया गया है। तीन मुख्य प्राचीन परंपराएं हैं-वैदिक, जैन और बौद्ध । प्रश्न होता है-सेवा के बारे में इनमें क्या परम्परा है ? पहले संन्यास-धर्म के क्षेत्र की बात करें। वैदिक संन्यासियों में सेवा जैसी बात नहीं मिलेगी। इसका कारण यह है-वहां संघबद्धता नहीं थी। कहा गया-अपनी साधना करो। ऋषि है तो सपत्नीक रहो और अरण्यवासी बनकर रहो। अकेले साधना करो। वैदिक परम्परा में सेवा की बात नहीं आती । संघबद्ध जीवन आता है दो परम्पराओं में । मूलतः संघबद्धता का श्रेय ऐतिहासिक दृष्टि से भगवान् पार्श्व को दिया जाता है। पाव ने संघबद्ध साधना का सूत्रपात किया। जैन परम्परा संघबद्ध है और बौद्ध परम्परा भी पाश्र्वनाथ की ऋणी नहीं है, यह नहीं कहा जा सकता। बौद्ध परम्परा भी संघबद्ध साधना में संलग्न है। इन दोनों में भी संघ की सेवा का महत्त्व किसमें ज्यादा दिया गया ? बौद्ध परम्परा में आचार्य, उपाध्याय और अन्तेवासी-ये तीन श्रेणियां हैं। कहा गया-अन्तेवासी आचार्य और उपाध्याय की सेवा करें। आचार्य और उपाध्याय भी अन्ते वासी की सेवा करें। जहां तक मैंने पढ़ा है, सेवा का बौद्ध साहित्य में इतना ही उल्लेख मिलता है।
नोबल पुरस्कार
जैन, साहित्य में सेवा का विस्तृत वर्णन उपलब्ध होता है। आगम और व्याख्या साहित्य के कम से कम दस प्रतिशत भाग में गुंफित है सेवा का प्रकरण । स्थानांग में यहां तक लिखा गया-महानिज्जरे महापज्जवसाणेसेवा करने वाला महानिर्जरा और महापर्यवसान वाला होता है। इतनी बड़ी निर्जरा और इतना बड़ा पर्यवसान यानी संसार का अन्त या मोक्ष का स्वामित्व । सेवा का इतना महत्व बतलाया । निर्जरा की बात तो होती है पर महानिर्जरा का अर्थ एक प्रकार से हमारा नोबल पुरस्कार है। शायद अब तक यह पुरस्कार किसी को नहीं दिया गया है पर यह सबसे बड़ा सम्मान है। यह सम्मान भी आत्मा का सम्मान है, औपचारिक सम्मान नहीं।
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