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भेद में छिपा अभेद
आज बाल सुधार गृह बनाएं जा रहे हैं। यह चिन्तन प्रबल बन रहा है - दण्ड से मनुष्य को सुधारा नहीं जा सकता। उसे सुधारना है तो सुधार गृह बनाना होगा।
समाज की भूमिका
ऐसा लगता है समाज का चिन्तनं निरंतर विकास की ओर जा रहा है। यदि हम ढाई हजार वर्ष पहले की बात मानकर चलें तो आंख फोड़ने, कान में शीशा डालने, हाथ काट देने जैसे क्रूर दंड -विधानों को अपनाना होगा। ये हमारे धर्मशास्त्र के कानून हैं। परिवर्तनशील नियमों को शाश्वत नियमों के साथ जोड़ दिया गया इसीलिए यह अज्ञान बढ़ा। जैन आचार्यों ने कभी ऐसी भूल नहीं की। उनका स्पष्ट चिन्तन रहा- हमारी सीमा है अध्यात्म को बताना, धर्म को बताना । समाज की भूमिका बदलती रहती है। उसे कभी धर्म के साथ नहीं जोड़ना चाहिए। यह काम अर्थशास्त्री और समाजशास्त्री का है । 'शाश्वत को अशाश्वत के साथ न जोड़ें
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धर्म का काम इतना अवश्य है कि उसमें जो कुछ अवांछनीय लगे, उस पर अंकुश लगाए । काम या अर्थ की कोई बात अवांछनीय लगे तो धर्म का काम है कि वह उस अवांछनीय तत्त्व को हटाने की उत्प्रेरणा बने किन्तु धर्म और मोक्ष के शाश्वत नियमों के साथ अशाश्वत नियमों को जोड़कर उन्हें धर्म का रूप दे दिया जाए, शाश्वत नियमों का स्थान दिया जाए तो वह समाज के लिए भी कल्याणकारी नहीं होगा, धर्म के लिए भी कल्याणकारी नहीं होगा। यह दृष्टि जितनी साफ रहेगी, धर्म और समाज दोनों का उतना ही भला होगा। उत्तराध्ययन में पुरुषार्थद्वयी का जो प्रतिपादन है, वह सोच-समझकर किया गया प्रयोग है। इन सारे दृष्टिकोणों को सामने रखकर हम उत्तराध्ययन एवं महाभारत को पढ़ें और जो जो सारभूत लगे, उसकी उपासना करें। यदि ऐसा होता है तो तुलनात्मक अध्ययन हमारे सर्वतोमुखी लाभ का कारण बन पाएगा।
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