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प्रस्तुति
सत्य को देखने की दृष्टि और परखने की कसौटी का नाम है अनेकान्त। अनेकान्त की घोषणा है - जितने वचन के पथ उतने नयवाद --- सत्य को पकड़ने के दृष्टिकोण। प्रत्येक विचार एक नय है और वह है सापेक्ष। हमारी सत्यांश को पकड़ने की प्रवृत्ति नहीं है। सत्यांश को पूर्ण सत्य मानकर चलने की प्रवृत्ति बद्धमूल हो गई है। इसलिए हम एक विचार को सत्य मानते हैं और दसरे को असत्य। सांप्रदायिक झगड़ों का यही मल आधार है।
सांप्रदायिक सद्भावना का स्वर्ण-सूत्र है अनेकान्त। अपने विचार के सत्यांश को स्वीकार करो पर भिन्न विचार या दूसरे के विचार के सत्यांश का खण्डन मत करो। भेद और अभेद - दोनों सापेक्ष हैं। उन दोनों को सापेक्षदृष्टि से देखो।
प्रस्तुत पुस्तक में केवल अभेद अथवा समन्वय साधने का प्रयत्न नहीं है। इसमें भेद और अभेद – दोनों का यथार्थ दर्शन है। किसी भी सत्यांश के प्रति अन्याय न हो, इसका सम्यक् प्रयत्न किया गया है। _ आचार्य श्री तुलसी ने अनेकान्त की दृष्टि का स्वयं प्रयोग किया है और मुझे भी वह दृष्टि दी है। मेरी धारणा में इससे बड़ा कोई चक्षुदान नहीं हो सकता। मुनि दलहराजजी प्रारंभ से ही साहित्य संपादन के कार्य में लगे हुए हैं। वे इस कार्य में दक्ष हैं। प्रस्तुत पुस्तक के संपादन में मुनि धनंजय कुमार ने निष्ठापूर्ण श्रम किया है।
युवाचार्य महाप्रज्ञ
१५ अगस्त १९९१ जैन विश्व भारती लाडनूं
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