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मनोभाव की प्रक्रिया : भाव वशीकरण की प्रक्रिया
वर्तित हो सकता है । पुण्य संचित है किन्तु बाद में ऐसा प्रयत्न किया गया, इतना तीव्र प्रयत्न किया कि अपनी भावधारा के कारण जो परमाणु पुण्य रूप में अर्जित किये थे यानी जो 'जीन' पुण्य रूप में हमारे साथ संलग्न हुए थे, उन जीनों का परिष्कार किया, उनको बदल दिया, वे पाप के रूप में परिवर्तित हो गये । बंधा हुआ पुण्य पाप बन गया। जो परमाणु पाप के रूप में अर्जित किये थे, ऐसा अच्छा अध्यवसाय, अच्छी भावधारा और अच्छा प्रयत्न किया कि पाप के रूप में जो जीन अर्जित थे, वे पुण्य के रूप में परिवर्तित हो गये। यह संक्रमण की प्रक्रिया है । यह केवल पाप और पुण्य से सम्बन्ध रखने वाली प्रक्रिया नहीं है। यह हमारी चेतना की नाना अवस्थाओं को बदलने वाली प्रक्रिया है । ज्ञान को बदला जा सकता है। जिनेटिक इन्जीनियरिंग में यही किया जा रहा है कि जीनों का ऐसा परिष्कार किया जाये, जिससे आनुवंशिकता से आने वाली बातों को समाप्त कर, उसमें इतना उन्नत ज्ञान, इतनी शक्ति और इतनी प्रतिभा भर दी जाए, जिससे पैदा होने वाली संतान बदल जाए। ऐसा हो सकता है। जब वनस्पति और पशु में ऐसा हो सकता है तो मनुष्य में ऐसा क्यों नहीं हो सकता? जब नस्ल को सुधार कर पशु को समुन्नत किया जा सकता है, उसके मूल्य और क्षमता में वृद्धि की जा सकती है तो क्या मनुष्य में ऐसा नहीं हो सकता ? कर्मशास्त्र के मनीषियों ने इस प्रश्न पर बहुत गहरा चिन्तन किया था और उद्वर्तन, अपवर्तन, उदीरण और संक्रमण---इन सारी विधियों का प्रतिपादन किया था। किन्तु आज इनकी भाषा विस्मृत हो गई । इन तथ्यों का हृदय विस्मृत हो गया । ज्ञान और दर्शन को बदला जा सकता है, स्वभाव को बदला जा सकता है, आवेगों को बदला जा सकता है, व्यक्तित्व का पूरा रूपान्तरण किया जा सकता है, नई नस्ल पैदा की जा सकती है। ये सारे कर्म-शास्त्रीय रहस्य हैं किन्तु रूढ़िवादिता के कारण ये बातें विस्मृति के गर्त में चली गई।
___जो व्यक्ति आत्मा का निरीक्षण करता है, वह केवल अपना ही निरीक्षण नहीं करता, वह समूचे संसार का निरीक्षण करता है । जिसमें अपने आपको देखने की क्षमता विकसित हो गई, उसमें जगत् को देखने की क्षमता भी विकसित हो गई। आत्मा और जगत्-ये दोनों विभक्त नहीं हैं। सारा जगत् एकसूत्रता में बंधा हुआ है । सारी एक शृंखला है । सब कुछ जुड़ा हुआ है। आदमी के चिन्तन की जो तरंग है, वह दूसरी तरंग से जुड़ी हुई है, दूसरी तरंग तीसरी तरंग से और तीसरी तरंग चौथी तरंग से जुड़ी हुई है। सारा विश्व तरंगों से जुड़ा हुआ है। जिसे सर्वथा विभक्त किया जा सके, वैसा कुछ भी नहीं है । भगवान् महावीर ने कहा-'जो एगं जाणइ स सव्वं जाणइ'-जो एक को जानता है वह सबको जानता है । वास्तव में एक को जानने वाला ही सबको जान सकता है । सबको जाने बिना एक को भी नहीं जाना जा सकता।
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