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आज का विज्ञान भी इसी भाषा में बोलता है ।
हमारी आन्तरिक एकता, एकसूत्रता इतनी जुड़ी हुई है तो फिर आत्मा को जानने वाला क्या पदार्थ को नहीं जानता ? जिसने सूक्ष्मता के साथ निरीक्षण किया है, अपने आपको जाना है, उसने सारे संसार को जाने-अनजाने जानने का प्रयास किया है और उस दिशा में चरण आगे बढ़ाए हैं ।
अवचेतन मन से संपर्क
हम अपने निरीक्षण की बात करें, क्योंकि भावों को बदलने के लिए आत्म-निरीक्षण अत्यन्त आवश्यक है । ध्यान में सबसे पहले हम यह देखें कि भीतर कौन-सा भाव प्रबल हो रहा है ? कौन-सी संज्ञा या प्रवृत्ति उभर रही है ? लोभ का भाव, मान और अहंकार का भाव, क्रोध और रोष का भाव, कामवासना और घृणा का भाव -- ये सारे नकारात्मक भाव हैं । इनके प्रतिपक्षी भाव विधेयात्मक या सकारात्मक भाव हैं— संतोष, आर्जव, क्षमा, प्रेम आदि-आदि। ये सारे भाव एक साथ नहीं उभरते । कभी किसी भाव की प्रबलता होती है और कभी किसी भाव की । किसी व्यक्ति में रस लोलुपता के भाव की प्रबलता है तो किसी में भय का भाव प्रबल होता है । किसी में कामवासना का भाव उभरता है तो किसी में लोभ की भावना प्रबल होती है । ध्यान करने वाले को एकान्त में बैठकर सूक्ष्म दृष्टि से आत्मनिरीक्षण करना होता है और देखना पड़ता है कि कब कौन-सा भाव उभर रहा है । जब तक स्वयं के भावों का निरीक्षण नहीं किया जाता और अपने प्रबलतम भाव को नहीं पकड़ा जाता, तब तक ध्यान की बहुत बड़ी उपलब्धि नहीं हो सकती । ध्यान के द्वारा हम यही तो चाहते हैं कि भाव-परिवर्तन हो । दृष्टिकोण बदले, आचरण और व्यवहार बदले । जब तक हमें यह ज्ञान नहीं होता कि किस भाव को बदलें । तब तक परिवर्तन कैसे हो ? सबसे पहले हमें उस भाव को पहचानना होगा, जो हमारे जीवन में अधिक समस्याएं और उलझनें पैदा कर रहा है । यह पूरा वैयक्तिक काम है ।
मनोवैज्ञानिक टेस्ट के लिए एक निर्धारित या योजनाबद्ध प्रश्नावली होती है । किन्तु उस प्रश्नावली की अपेक्षा अन्तर् निरीक्षण और आत्म-निरीक्षण की प्रश्नावली अधिक गूढ़ और गहरी है । उसके आधार पर भाव को ज्ञात किया जाता है और परिवर्तन का यह पहला सोपान है । जब यह ज्ञात हो जाता है कि अमुक भाव अधिक सक्रिय है, वह नकारात्मक है, वही समस्याएं खड़ी कर रहा है तो उसे सबसे पहले बदला जाए। ध्यान का यही प्रयोजन है । प्रेक्षाध्यान के संदर्भ में श्वास प्रेक्षा, शरीर प्रेक्षा, चैतन्य -केन्द्र, प्रेक्षा आदि के प्रयोग प्रत्येक ध्यान साधक के लिए करणीय प्रयोग हैं । इनसे परिवर्तन घटित होता है, पर इसके लिए दीर्घ समय अपेक्षित होता है । भाव परिवर्तन के लिए हमें प्रेक्षा ध्यान के संदर्भ में विशेष प्रयोग करने होंगे, जिससे कि हमारा वांछित कार्यं शीघ्र हो सके, जब साधक ध्यान की सामान्य प्रक्रियाएं करता
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