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________________ ६० आज का विज्ञान भी इसी भाषा में बोलता है । हमारी आन्तरिक एकता, एकसूत्रता इतनी जुड़ी हुई है तो फिर आत्मा को जानने वाला क्या पदार्थ को नहीं जानता ? जिसने सूक्ष्मता के साथ निरीक्षण किया है, अपने आपको जाना है, उसने सारे संसार को जाने-अनजाने जानने का प्रयास किया है और उस दिशा में चरण आगे बढ़ाए हैं । अवचेतन मन से संपर्क हम अपने निरीक्षण की बात करें, क्योंकि भावों को बदलने के लिए आत्म-निरीक्षण अत्यन्त आवश्यक है । ध्यान में सबसे पहले हम यह देखें कि भीतर कौन-सा भाव प्रबल हो रहा है ? कौन-सी संज्ञा या प्रवृत्ति उभर रही है ? लोभ का भाव, मान और अहंकार का भाव, क्रोध और रोष का भाव, कामवासना और घृणा का भाव -- ये सारे नकारात्मक भाव हैं । इनके प्रतिपक्षी भाव विधेयात्मक या सकारात्मक भाव हैं— संतोष, आर्जव, क्षमा, प्रेम आदि-आदि। ये सारे भाव एक साथ नहीं उभरते । कभी किसी भाव की प्रबलता होती है और कभी किसी भाव की । किसी व्यक्ति में रस लोलुपता के भाव की प्रबलता है तो किसी में भय का भाव प्रबल होता है । किसी में कामवासना का भाव उभरता है तो किसी में लोभ की भावना प्रबल होती है । ध्यान करने वाले को एकान्त में बैठकर सूक्ष्म दृष्टि से आत्मनिरीक्षण करना होता है और देखना पड़ता है कि कब कौन-सा भाव उभर रहा है । जब तक स्वयं के भावों का निरीक्षण नहीं किया जाता और अपने प्रबलतम भाव को नहीं पकड़ा जाता, तब तक ध्यान की बहुत बड़ी उपलब्धि नहीं हो सकती । ध्यान के द्वारा हम यही तो चाहते हैं कि भाव-परिवर्तन हो । दृष्टिकोण बदले, आचरण और व्यवहार बदले । जब तक हमें यह ज्ञान नहीं होता कि किस भाव को बदलें । तब तक परिवर्तन कैसे हो ? सबसे पहले हमें उस भाव को पहचानना होगा, जो हमारे जीवन में अधिक समस्याएं और उलझनें पैदा कर रहा है । यह पूरा वैयक्तिक काम है । मनोवैज्ञानिक टेस्ट के लिए एक निर्धारित या योजनाबद्ध प्रश्नावली होती है । किन्तु उस प्रश्नावली की अपेक्षा अन्तर् निरीक्षण और आत्म-निरीक्षण की प्रश्नावली अधिक गूढ़ और गहरी है । उसके आधार पर भाव को ज्ञात किया जाता है और परिवर्तन का यह पहला सोपान है । जब यह ज्ञात हो जाता है कि अमुक भाव अधिक सक्रिय है, वह नकारात्मक है, वही समस्याएं खड़ी कर रहा है तो उसे सबसे पहले बदला जाए। ध्यान का यही प्रयोजन है । प्रेक्षाध्यान के संदर्भ में श्वास प्रेक्षा, शरीर प्रेक्षा, चैतन्य -केन्द्र, प्रेक्षा आदि के प्रयोग प्रत्येक ध्यान साधक के लिए करणीय प्रयोग हैं । इनसे परिवर्तन घटित होता है, पर इसके लिए दीर्घ समय अपेक्षित होता है । भाव परिवर्तन के लिए हमें प्रेक्षा ध्यान के संदर्भ में विशेष प्रयोग करने होंगे, जिससे कि हमारा वांछित कार्यं शीघ्र हो सके, जब साधक ध्यान की सामान्य प्रक्रियाएं करता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003084
Book TitleAvchetan Man Se Sampark
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages196
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size9 MB
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