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भाव और आयुर्विज्ञान
७५ रोटियां बनाने बैठे। रोटियां बनाकर रख दी और कहीं इधर-उधर चले गए। इतने में ही कुत्ता आया और जो चार रोटियां बनीं पड़ी थीं, उन्हें उठाकर ले भागा । इतने में ही संत नामदेव आ गए। उन्होंने देखा-कुत्ता सारी रोटियां ले जा रहा है। वे उसके पीछे दौड़े गुस्से में आकर नहीं, रोटियां छुड़ाने के लिए नहीं किन्तु साथ में घी का बर्तन लेकर दौड़े और बोले'अरे ! कुत्ते भाई ! रोटियां ले जा रहे हो, तो लूखी क्यों ले जा रहे हो ? जरा ठहरो ! मैं सारी रोटियां चुपड़ देता हूं।' संत नामदेव यह कह रहे थे पूर्ण प्रसन्नता के साथ, कहीं आवेश नहीं, क्रोध नहीं, अन्यथा भाव नहीं।
प्रश्न है उन्हें क्रोध क्यों नहीं आया ? इसका सीधा सा उत्तर है कि उनका दृष्टिकोण बदला हुआ था, पित्त का प्रकोप नहीं हुआ, इसीलिए क्रोध नहीं आया। पित्त का प्रकोप इसीलिए नहीं हुआ कि उनका दृष्टिकोण पूर्ण आध्यात्मिक था, समतामय था । उन्होंने सोचा-मैं खाता हूं क्योंकि मैं प्राणी हूं। कुत्ता भी प्राणी है । उसे भी खाने का अधिकार है। प्राणी-प्राणी में क्या अन्तर होता है ?
जिस व्यक्ति का दृष्टिकोण सम्यग् हो जाता है, यथार्थ और सत्यपरक हो जाता है, उसमें पित्त के प्रकुपित होने की संभावना नहीं रहती। उसमें क्रोध नहीं उभरता । इस दृष्टि से यह महत्वपूर्ण तथ्य है---'दर्शनं पित्तवारणम्'---- दर्शन पित्त का अवरोधक तत्व है।
कहा गया-'चरणं कफनाशाय'-चारित्र से कफ का प्रकोप शान्त होता है । समता, अहिंसा और सत्य के आचरण से, प्रामाणिक व्यवहार से कफ का प्रशमन होता है । सुनने में यह भी बहुत दूर की बात लगती है। हो सकता है कि लिखने वाले आचार्य ने किस चिंतन के मूड में लिखा होगा ? उनके सामने कौन-सी दृष्टि रही होगी। मैं उससे अनजान हूं। मैंने जो समझा है, वह मैंने प्रस्तुत किया है कि कफ का एक कार्य है-मूर्छा उत्पन्न करना । आयुर्वेद का यही सिद्धांत है कि कफ मूर्छा पैदा करता है। भ्रमी का उत्पन्न होना, चक्कर आना, चेतना का लुप्त हो जाना—यह सब कफ के प्रकोप से होता है। चारित्र-भ्रंश क्यों होता है ? चारित्र की विकृति, आचरण और व्यवहार की अशुद्धि क्यों होती है ? इन सबका कारण है मोहनीयकर्म, मूर्छा। कर्मशास्त्र के अनुसार चारित्र में जितने विकार आते हैं, वे मोहनीय कर्म के कारण आते हैं। मोहनीय कर्म मूढ़ता पैदा करता है, मूर्छा उत्पन्न करता है
और चेतना की जागृति को लुप्त करता है । जब चेतना की जागृति समाप्त होती है, मूढ़ता और मूर्छा जागती है तब चारित्र विकृत होता है । जब चारित्र का विकास होता है तब जागृति का विकास होता है । मूर्छा समाप्त होती है और जब मूर्छा समाप्त होती है तब कफ का प्रकोप नहीं होता, कफ कुछ भी काम नहीं कर सकता । कफ का कार्य है-जड़ता पैदा करना और चारित्र
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