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अवचेतन मन से संपर्क
तीव्र होती हैं, आदमी उतनी ही मात्रा में अज्ञानी होता है । ज्ञान और इच्छा दोनों का संगम नहीं हो सकता, दोनों साथ नहीं चल सकते । तीव्र आकांक्षा, तीव्र इच्छा अज्ञान का प्रथम लक्षण है । ज्ञान का जैसे ही विकास होगा, इच्छाएं अल्प होती जाएंगी। जहां इच्छाएं होंगी वहां काम, शोक और भय होगा । काम, शोक और भय - तीनों वायु को बढ़ाते हैं, प्रकम्पित करते हैं । क्या ज्ञान के द्वारा वायु का प्रकोप शांत किया जा सकता है ? जब ज्ञान के द्वारा इच्छाओं को कम किया जा सकता है तो इच्छा से उत्पन्न होने वाले काम, शोक और भय को कम क्यों नहीं किया जा सकता ? जब उनको कम किया जा सकता है तो उनसे उत्पन्न होने वाले वायु के विकोपन को कम क्यों नहीं किया जा सकता ? कम किया जा सकता है । यह पूरी कार्य-कारण की शृंखला है।
दर्शन के द्वारा पित्त का प्रकोप शांत होता है । यह बहुत महत्त्वपूर्ण खोज है। पित्त या क्रोध दृष्टिकोण / दर्शन / के आधार पर होता है । पित्त का कार्य है--- उत्तेजना पैदा करना । चंचलता और क्रोध पैदा करना । आवेश पैदा करना —- ये सारे दृष्टिकोण के आधार पर होते हैं। गहराई में उतर कर देखने से पता चलेगा कि क्रोध का बहुत बड़ा कारण है— दृष्टिकोण | जिस व्यक्ति के प्रति दृष्टिकोण गलत बन जाता है तो उसके अच्छे कार्य के प्रति भी क्रोध आ जाएगा । जिसके प्रति दृष्टिकोण सही बना हुआ है, वह बड़ी गलती करता है, फिर भी उसके प्रति क्रोध नहीं आता । जिस सास का अपनी बहू के प्रति गलत दृष्टिकोण बन गया तो बहू के प्रत्येक कार्य में कोई न कोई त्रुटि दीख पड़ेगी । वह दृष्टिकोण उत्तेजना पैदा करता रहेगा । जिस पिता का अपने पुत्र के प्रति गलत दृष्टिकोण बन जाता है, तो पुत्र चाहे कितना ही अच्छा काम करे, पिता उस पर उत्तेजित होगा, उसमें दोष निकालेगा ।
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जब सम्यग् दर्शन होता है, दृष्टिकोण सही होता है तब पित्त को उत्तेजित होने का अवसर ही नहीं मिलता । जिन लोगों के एसिडिटी अधिक बनती है, उन्हें ध्यान देना चाहिए कि कहीं उनका दृष्टिकोण गलत तो नहीं है । उन्हें यह आत्मालोचन करना चाहिए । एसिडिटी की अधिकता यह सूचित करती है --- अवश्य ही दृष्टिकोण का दोष है । दृष्टिकोण के दोष को मिटाने पर संभव है एसिडिटी कम हो जाए। जब दृष्टिकोण सम्यग् बन जाता है, आध्यात्मिक बन जाता है, समतापूर्ण बन जाता है तब संभवतः पित्त का प्रकोप भी शांत हो जाता है और क्रोध भी नहीं आता । महाराष्ट्र के एक प्रसिद्ध संत हुए हैं -- संत नामदेव | वे बहुत बड़े साधक थे । वे इतने बड़े वैरागी थे कि यदि अनेक दिनों तक भोजन नहीं मिलता तो भोजन नहीं करते। एक बार कई दिनों से आटा मिल गया । वे
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