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________________ भाव और आयुर्विज्ञान अशुद्ध भावधारा होती है तो शुद्ध भावधारा तिरोहित हो जाती है। दोनों एक साथ नहीं रह सकते । यह तो तर्क सिद्ध बात है। एक आदमी तीन किलो दूध लाया। उसने कुछ स्वयं पी लिया और कुछ लड़के को पिला दिया। दूध समाप्त हो गया। मालिक ने पूछा-मैंने जो दूध मंगाया था, वह कहां है ? यह मनुष्य की दुर्बलता है कि सत्य को स्वीकार करना नहीं चाहता । वह तर्क की ओट में सत्य को छिपाकर असत्य बोलना अधिक पसन्द करता है। उसने कहा-'दूध तो मैं तीन किलो लाया था, पर बिल्ली उसे पी गई।' मालिक ने कहा-तीन किलो दूध बिल्ली कैसे पी गई ? वह बोला--'मैं नहीं जानता। संभव है वह भूखी थी और सारा दूध चट कर गई।' मालिक ने बिल्ली को पकड़ कर तोला । उसका वजन तीन किलो निकला । मालिक बोला-तीन किलो की बिल्ली तीन किलो दूध पीती है तो उसका वजन छह किलो होना चाहिए । यह तीन किलो है। हमारी भावधारा के लिए भी यही कहा जा सकता है कि तीन किलो अशुद्ध भावधारा है तो तीन किलो शुद्ध भावधारा नहीं हो सकती। दोनों साथ-साथ नहीं हो सकते । हमारे भीतर अनेक धाराएं प्रवाहित हो रही हैं । किन्तु हमें उन्हीं का पता चलता है जो अभिव्यक्त होती हैं । इसीलिए हमें निमित्तों के प्रति पूर्ण सावधान रहना पड़ता है । जो व्यक्ति केवल उपादान में विश्वास करता है और निमित्तों की उपेक्षा करता है, वह बहुत खतरे मोल ले लेता है। उपादान का मूल्य है तो निमित्तों का भी अपना मूल्य है । निमित्तों के प्रति सावधान रहना बहुत जरूरी है। उपादान की अभिव्यक्ति निमित्त के बिना नहीं हो सकती । विद्युत् का कार्य है प्रकाश करना । यदि वल्ब नहीं है तो प्रकाश अभिव्यक्त नहीं होगा। सोचना मन का कार्य है, किन्तु वाणी का निमित्त न मिले तो मन की बात मन में रह जाती है, अभिव्यक्त नहीं हो सकती। सारी अभिव्यक्तियां माध्यमों से, निमित्तों से होती है। इसीलिए सर्वांगीण दृष्टि से विचार करने वाला व्यक्ति केवल आत्मा को अथवा आत्मा में होने वाली अवस्था को अतिरिक्त मूल्य नहीं दे सकता और न व्यवस्था को अतिरिक्त मूल्य दे सकता है। वह परिस्थिति और अन्तःकरण-दोनों का समन्वय कर चलता है। कुछ लोग एकांगी दृष्टि वाले होते हैं । वे या तो उपादान को ही सब कुछ मान लेते हैं या निमित्त को ही सब कुछ मान लेते हैं। जो उपादानवादी होते हैं वे सारा भार उपादान या निश्चय नय पर डाल देते हैं। जो निमित्तवादी या परिस्थितिवादी होते हैं वे सारा दायित्व निमित्त या परिस्थित पर डाल देते हैं। दोनों ओर उलझनें हैं, समस्याएं हैं। हमें इनका योग व समन्वय सीखना होगा। जितना उपादान का मूल्य है, हम उसे वह दें और निमित्त का जितना मूल्य है, हम उसे वह मूल्य दें। दोनों का यथार्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003084
Book TitleAvchetan Man Se Sampark
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages196
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size9 MB
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