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भाव और आयुर्विज्ञान
शरीर में उत्पन्न होने वाली बीमारी व्याधि है और मन पर उतरने वाली बीमारी आधि है । यह स्पष्ट है किन्तु इसका कारण अस्पष्ट है, परोक्ष है। जब तक हम उस परोक्ष कारण को नहीं समझ पाएंगे तब तक समाधान नहीं मिलेगा । केवल प्रत्यक्ष कारण के आधार पर समाधान नहीं खोजा जा सकता। उसका निदान और चिकित्सा नहीं होगी। हमें दृश्य और अदृश्य, प्रत्यक्ष और परोक्ष-दोनों पर विचार करना होगा। जिन लोगों ने औषधि का विधान किया, चिकित्सा का विधान किया, उन्होंने केवल प्रत्यक्ष को ही नहीं देखा, केवल कार्य को ही पर्याप्त नहीं माना । उन्होंने परोक्ष में छिपे हुए हेतु की भी खोज की। जब हेतु की मीमांसा ठीक हो जाती है तब निदान करना सरल हो जाता है।
. आयुर्वेद में तीन दोष माने जाते हैं--वात, पित्त और कफ । जब वात पित्त और कफ का संतुलन होता है तब स्वास्थ्य बना रहता है और जब यह संतुलन टूट जाता है तब स्वास्थ्य में गड़बड़ी हो जाती है। इसी असंतुलन से शारीरिक और मानसिक-दोनों प्रकार की बीमारियां पैदा होती हैं। ये तीन दोष शारीरिक और मानसिक रोग ही पैदा नहीं करते, भावों पर भी प्रभाव डालते हैं । भावों के साथ इनका गहरा सम्बन्ध है । भाव इन तीनों दोषों से प्रभावित होते हैं। ये दोष भावों को उत्पन्न करते हैं । वायु का प्रकोप बढ़ने पर भय अधिक लगने लग जाता है। कुछ लोग अकारण ही डरने लग जाते हैं। उन्हें भय अधिक लगता है । इसका अर्थ है कि उन व्यक्तियों में वायु प्रकुपित है । वायु का प्रकोप बढ़ने पर कल्पनाएं जागती हैं। पित्त का प्रकोप होने पर क्रोध बढ़ता है। पित्त और क्रोध का सम्बन्ध है । पित्त बढ़ता है तो साथ साथ क्रोध भी बढता है और क्रोध बढ़ता है तो पित्त भी बढ़ता है। कफ की मात्रा अधिक होने पर तन्द्रा सताती है । मन में शोक उत्पन्न हो जाता है। इस प्रकार ये दोष भावों को उत्पन्न करते हैं, भावों को अभिव्यक्त करते हैं । ये सब भाव अस्तित्व में रहते हैं। हमारे अन्तःकरण या सूक्ष्म शरीर में काम, क्रोध, शोक, भय-ये सब विद्यमान हैं। परन्तु ये निरन्तर प्रकट नहीं रहते । जब उचित निमित्त मिलता है तब अभिव्यक्त हो जाते हैं । निमित्तों की आज कोई कमी नहीं है । निमित्त पाकर अभिव्यक्त हो जाते हैं । अन्यथा अनभिव्यक्त रहते हैं। दोनों एक साथ नहीं होते । जब भाव धारा शुद्ध होती है तो अशुद्ध भावधारा परदे के पीछे चली जाती है और यदि
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