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________________ ६४ अवचेतन मन से संपर्क भोगता है पर पूर्ण जागरूकता, समता और तटस्थता के साथ भोगता है। इसका फलित यह होता है कि अतीत वहीं टूट जाता है। वह आगे नहीं बढ़ पाता । हिंसाजनित कष्टों को भोगने वाला, हिंसा के परिणामों को भोगने वाला व्यक्ति यदि जागरूक होता है तो वह इतना परिष्कार कर लेगा कि भविष्य में हिंसा का भाव ही उत्पन्न न हो । बहुत बड़ा अन्तर होता है। एक आदमी बीमार हुआ । वह अपने किए हुए कर्म (बीमारी) को भुगत रहा है। वह उसको भोगते समय इतनी आकुलता और व्याकुलता से भरा रहता है कि वह उस बीमारी को भोगते-भोगते फिर नई बीमारी का बीज बो देता है । दूसरा आदमी बीमारी को भोग रहा है, किन्तु समता और शान्ति के साथ । वह सोचता है, मैंने अतीत में कुछ अनिष्ट किया था, उसका फल भुगत रहा हूं। यदि इस समय भी आर्तध्यान रहेगा, परिणामों की अशुद्ध धारा बहेगी, भाव विकृत होगा और रो-रोकर कष्ट सहूंगा तो वह नए सिरे से नई बीमारी का बीज बो देगा । मुझे कृत का भोग करना ही पड़ेगा। अच्छा है--समता से उस कष्ट को सहा जाए, शांति के साथ उसे भोगा जाए। इससे अतीत का परिष्कार होगा और यह शृंखला आगे नहीं बढ़ेगी। ___ध्यान का अर्थ है-जीवन में जागरूकता का विकास । ध्यान से चेतना इतनी निर्मल बन जाती है कि प्रत्येक प्रवृत्ति में समता अवतरित हो जाती है । हर घटना के साथ समता का भाव जुड़ जाता है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि प्रत्येक व्यक्ति को, जो अजित है, उसे भगतना ही पड़ता है। फिर वह व्यक्ति चाहे धर्म करने वाला हो या धर्म न करने वाला हो। फिर वह व्यक्ति चाहे ध्यान करने वाला हो या ध्यान न करने वाला हो । अन्तर का बिन्दु कहां है, हम उसे पकड़ें। एक अत्यन्त धार्मिक और श्रद्धालु व्यक्ति है । उसके प्रिय का वियोग हो गया । क्या उसे कष्ट नहीं होता ? क्या उसके सामने समस्या नहीं आती ? क्या धार्मिक व्यक्ति के कभी प्रिय का वियोग और अप्रिय का संयोग नहीं होता ? क्या वह उसमें अत्यन्त दीन-हीन और विक्षिप्त हो जाएगा? यदि होता है तो धामिक बनने का अर्थ ही क्या रहा ? लोग कहते हैं कि धार्मिक व्यक्ति में आपत्ति आए, कष्ट आए तो फिर धर्म किस काम का ? अधार्मिक व्यक्ति में कष्ट आए, विपत्ति आए, यह तो समझ में आने वाली बात है, क्योंकि वह अधर्म कर रहा है । अधर्म का फल है विपत्ति । पर धार्मिक को विपत्ति का सामना करना पड़े, यह न्याय नहीं कहा जा सकता। फिर धर्म करने और न करने में अन्तर ही क्या पड़ा ? इस बिंदु पर आकर अनेक व्यक्ति भटक जाते हैं। वे व्यक्ति इस सचाई को भुला देते हैं कि धर्म करने वाला हो या धर्म न करने वाला हो, सबको अपना-अपना पूर्व अर्जित कर्म भोगना ही पड़ेगा । जो संचित है, उसका उपयोग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003084
Book TitleAvchetan Man Se Sampark
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages196
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size9 MB
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