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________________ मन की शान्ति का प्रश्न ५ किए बिना कभी छुटकारा संभव नहीं है । संभव क्या, छुटकारा हो ही नहीं सकता । जो संस्कार संचित हैं, वे अवश्य प्रगट होते हैं । अन्तर का बिंदु यह नहीं है, कोई दूसरा है। धार्मिक व्यक्ति में भयंकर कष्ट आते हैं। अनेक विकट समस्याओं का उसे सामना करना पड़ता है पर वह इन सब उलझनों से घबराता नहीं, इन्हें प्रसन्नता से, समभाव से सह लेता है । यही धर्म की फलश्रुति है, कसौटी है। अधार्मिक व्यक्ति में भी कष्ट आते हैं, पर वह छोटी-सी समस्या में में इतना उलझ जाता है कि वह समस्या के समक्ष घुटने टेक देता है। __ धर्म का अर्थ है, धार्मिक होने का तात्पर्य है कि प्रत्येक समस्या के साथ समता को जोड़ दो। जब यह समता जुड़ती है तब न जाने कितने-कितने पुराने भावों का परिष्कार हो जाता है। __ परिष्कार का यह एक महत्त्वपूर्ण सूत्र है---जागरूकता । जागरूकता का सबसे बड़ा सूत्र है-श्वास-दर्शन । श्वास-दर्शन है वर्तमान में जीने का प्रयोग, भाव क्रिया का जीवन । जिस व्यक्ति ने भावक्रिया का अभ्यास किया है और इस अभ्यास के लिए जिसने श्वास का आलम्बन लिया है, वह सचमुच समता के भाव को विकसित करने में सफल हो जाता है । श्वास का प्रयोग समता के विकास का प्रयोग है। उसके साथ न प्रियता का भाव जुड़ता है और न अप्रियता का भाव जुड़ता है । जिस क्षण में हम श्वास का अनुभव करते हैं, उस क्षण में ये दोनों भाव नहीं होते । उस समय केवल श्वास का अनुभव चलता है। उसका फलित है समता का प्रगट होना। केवल आंख मूंद कर बैठ जाना, श्वास को देखना, यह प्रेक्षा-ध्यान का हार्द नहीं है । श्वास बेचारा जड़ है। वह हमारा क्या भला करेगा ? शरीर भी जड़ है । उसे स्थिर करें या हिलायें, क्या अन्तर आएगा ? शरीर की स्थिरता, कायोत्सर्ग, समताल श्वास-यह सब किसलिए ? इनका प्रयोजन क्या है ? एक शब्द में इनका प्रयोजन है समता का साक्षात्कार या समता का प्रगटीकरण । यही हमारा साध्य है और यही हमारा प्रेक्षाध्यान का हृदय समता की अनुभूति का नाम है-ध्यान । आंख मूंद कर बैठने का नाम ध्यान नहीं है। विचार-शून्य हो जाना ही ध्यान नहीं है । एकाग्र हो जाना ही ध्यान नहीं है । विचारशून्य होना भी एक साधन है, साध्य नहीं है । एकाग्र होना भी एक साधन है, साध्य नहीं। साध्य है समताभाव, सामायिक । ऐसी समता की चेतना का जागरण जिसके जागने पर सारे भावों और संस्कारों का परिष्कार हो सके, परिमार्जन हो सके और भविष्य को अधिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003084
Book TitleAvchetan Man Se Sampark
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages196
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size9 MB
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