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________________ ५४ अवचेतन मन से संपर्क देना चाहता है, अपनी रोटी सेकना चाहता है। यह सारा लोभ के कारण होता है । मनोविज्ञान के अनुसार प्राणी के जीवन-केन्द्र में लोभ है या काम है । कर्मशास्त्रीय दृष्टि से भी जीवन-केन्द्र में लोभ ही है। विकास-क्रम की भूमिका में प्रतिपादित है कि पहले क्रोध निरस्त होता है, फिर अहंकार और माया । पर लोभ बचा रहता है । भारतीय दर्शन में प्रयुक्त शब्द वीतराग बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। वीतद्वेष नहीं, वीतराग । प्रश्न होता है वीतराग क्यों, वीतद्वेष क्यों नहीं ? जबकि राग और द्वेष दोनों कर्म के बीज हैं, दोनों को नष्ट करना है तो फिर एक वीतराग शब्द ही क्यों ? कहना चाहिए थावीतराग वीतद्वेष । इस चिन्तन की भूमिका से यह स्पष्ट हो जाता है कि बेचारा द्वेष तो पहले ही समाप्त हो जाता है। राग का अपनयन कठिन होता है। लोभ आगे तक चलता है। इसलिये प्रत्येक व्यक्ति को वीतराग बनने की आवश्यकता है, वीतद्वेष बनने की जरूरत नहीं है । वह तो अपने आप घटित होगा। यह एक सचाई है कि समस्या मात्र लोभ या राग की है। प्रियता सबसे बड़ी समस्या है। अप्रियता तो प्रियता के कारण पैदा होती है। यदि किसी एक व्यक्ति के प्रति मन में प्रियता का भाव है तो यह निश्चित है कि दूसरे प्रति अप्रियता का भाव पैदा होगा । अप्रियता प्रियता का प्रासंगिक परिणाम है। यह मौलिक तथ्य नहीं है । मौलिक तथ्य है प्रियता, राग, लोभ । लोभ के कारण ही क्रूरता का भाव उभरता है, स्वार्थ पैदा होता है। आज के चारित्रिक ह्रास के पीछे मौलिक तत्त्व जो है, वह भीतरी है। यह आन्तरिक समस्या हैं । राजनैतिक प्रणालियों ने बाहरी समस्या को खोजा है। उनके अनुसार वे तीन हैं-व्यक्तिगत परिस्थिति, आर्थिक परिस्थिति और सामाजिक परिस्थिति । इतिहास के संदर्भ में यह सचाई भी है पर यह मूलभूत सचाई नहीं है। जब तक हम बाहरी और आंतरिक—दोनों पक्षों को एक साथ लेकर समस्या पर विचार नहीं करेंगे तब तक समस्या का पूरा समाधान नहीं हो सकेगा । आज सारी प्रणालियां बाहरी पक्ष की परिधि में कार्य कर रही हैं और आन्तरिक पक्ष की उपेक्षा की जा रही है । यह बड़ी विडंबना है। केवल न बाहर और न अन्तर । दोनों का सामंजस्य । यही है समस्या का समाधान । मैं तो सोचता हूं कि प्रत्येक समस्या के समाधान के लिए पांच-सात प्रकार के व्यक्तियों का योग होना चाहिये । धर्मगुरु, मनोविज्ञानशास्त्री, अर्थशास्त्री, समाजशास्त्री, शरीरशास्त्री और राजनेता । अगर इन पांच-सात व्यक्तियों का समुदाय किसी समस्या पर समवेत चिन्तन करता है तो सुन्दर निष्कर्ष निकल सकता है । अपनी विद्या के सभी विशेषज्ञ होते हैं। अपने-अपने क्षेत्र में आनेवाली समस्याओं के वे ज्ञाता होते हैं । वे ही उन-उन समस्याओं पर सही चिन्ता कर सकते हैं और सही समाधान दे सकते हैं। वह समन्वित समाधान ही सही समाधान होता है। किन्तु जब अलग-अलग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003084
Book TitleAvchetan Man Se Sampark
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages196
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size9 MB
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