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संबंधों का नया क्षितिज
ध्यान की निष्पत्ति है स्वभाव और व्यवहार का परिवर्तन । ध्यान करने वालों में यदि स्वभाव और व्यवहार का परिवर्तन नहीं होता है तो ध्यान एक विडंबना मात्र बन जाता है। ध्यान के द्वारा सामाजिक और मानवीय संबंधों में परिवर्तन आना चाहिए । मनुष्य का मनुष्य के साथ जो संबंध होता है, वह बदलना चाहिये । सामान्यत: हम यह अनुभव करते हैं कि एक मनुष्य की दूसरे मनुष्य के प्रति जो करुणा होनी चाहिये, वह नहीं है । क्रूरता अधिक है, करुणा कम है । अक्षम व्यक्ति क्रूरता का प्रदर्शन नहीं कर सकता, किन्तु थोड़ी-सी क्षमता, आते ही वह अपने से छोटों के प्रति अत्यन्त क्रूर बन जाता है। यह प्रश्न चाहे फिर मिल मालिक और मजदूर का हो, स्वामी और सेवक का हो, व्यवहार में जितनी मृदुता और करुणा होनी चाहिये, वह नहीं रह पाती। सब भूल जाते हैं कि मैं भी मानव हूं, वह भी मानव है । मैं भी चेतनावान् हूं, वह भी सचेतन है । मेरा भी अस्तित्व है और उसका भी अस्तित्व है। मैं भी स्वतंत्र हूं, वह भी स्वतंत्र है । इस भूमिका को भूल जाते हैं । इस भूमिका के आधार पर परस्पर व्यवहार नहीं होता । व्यवहार होता है अहंभाव के आधार पर । बड़े व्यक्तियों का यह स्वभाव या सिद्धांत बना हुआ है, वे यह सोचते हैं कि यदि छोटों पर कड़ा अनुशासन नहीं किया जाएगा तो वे मानेगे भी नहीं और कार्य भी नहीं करेंगे । अनुशासन करना उनके जीवन-व्यवहार का एक अभिन्न अंग बन गया। वे मानते हैं, अनुशास्ता में कठोरता और नियंत्रण की क्षमता होनी चाहिये। उसमें सामने वाले को दबाने की शक्ति होनी चाहिये । इस वृत्ति और सिद्धांत के कारण क्रूरता पनपी और यह क्रूरता की समस्या ही आज बड़ी समस्या है । मनुष्य में करुणा का स्रोत सूख गया। एक आदमी दूसरे आदमी के प्रति करुणाशील नहीं है। यदि आदमी में करुणा होती तो वह अप्रामाणिक व्यवहार नहीं करता । वह मिलावट कभी नहीं करता । जितने भी भ्रष्टाचार चल रहे हैं, उनके पीछे क्रूरता बोलती है । करुणा का प्रवाह सूख जाने के कारण आदमी कुछ भी करने में नहीं हिचकता। करुणा के स्रोत के सूखने का कारण हैलोभ । जब लोभ प्रबल होता है करुणा नीचे दब जाती है । लोभ का ताप इतना प्रबल है कि वह सब कुछ सुखा डालता है । ज्यों-ज्यों यह बढ़ता है, करुणा का पानी अल्प, अल्पतम होता है।
आज स्वार्थ बढ़ चुका है। हर आदमी अपनी रोटी के नीचे अंगारा
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