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________________ काम परिष्कार का दूसरा सूत्र : परिणाम दर्शन २३ कुछ नहीं देख पा रहा हूं । निरन्तर और सर्वत्र मुक्ति ही मुक्ति नजर आती है। राज्य भी चल रहा है, दण्ड भी दिए जा रहे हैं, पदार्थ भी भोगा जा रहा है । सब कुछ हो रहा है । हिंसा भी हो रही है, परिग्रह भी हो रहा है, पर मुझे चौबीसों घंटे, दिन रात, उठते बैठते, सोते-जागते, केवल मुक्ति ही दिखाई देती है । निरन्तर ऐसा अनुभव होता है— मुक्ति बचती है तो मैं बचता हूं और मुक्ति गिरती है तो मैं गिरता हूं । तूने एक मृत्यु से बचने के लिए, वर्तमान जन्म की मृत्यु से बचने के लिए इतना ध्यान केन्द्रित किया है । किंतु मैं अनन्त मृत्यु के चक्र से बचने के लिये, सारे बन्धनों से मुक्त होने लिए मुक्ति पर ध्यान केन्द्रित कर बैठा हूं। मैं अपना काम कर रहा हूं, पदार्थ अपना काम कर रहे हैं ! दुनियां चल रही है । कहीं नाच-गान हो रहा है । कहीं भोजन बन रहा है । कहीं खाया जा रहा है, कहीं भोगा जा रहा है, पर इन सबसे मुझे क्या ? मेरा प्रयोजन है केवल एक मुक्ति से । जब लक्ष्य के प्रति जागरूकता बन जाती है तब पदार्थ कोरा पदार्थ - मात्र रह जाता है । वह बांधने की शक्ति को खो देता है । पदार्थ बांधता भी है। और पदार्थ नहीं भी बांधता । पदार्थ तभी बांधता है जब व्यक्ति में जागरूकता नहीं होती । जब व्यक्ति में लक्ष्य के प्रति जागरूकता होती है तब पदार्थ उसे air नहीं पाता, यदि बाधा या विघ्न डालने वालों के हाथ में कोई ताकत हो तो दुनियां में कोई आदमी बाधाओं और विघ्नों से बचकर अपने इष्ट को पा नहीं सकता । इस दुनियां में विघ्न और बाधा उपस्थित करने वालों की कमी नहीं है । पग-पग पर बाधक तत्त्व उपस्थित हैं। क्या बीमारी फैलाने वाले कीटाणुओं की कमी है ? क्या इस दुनियां में मच्छरों और मक्खियों की कमी है ? क्या इस दुनियां में अवरोधक तत्त्वों की कमी है ? पूरा आकाशमण्डल उनसे भरा पड़ा है। पूरे आकाशमण्डल में रोग पैदा करने वाले जीवाणु भरे पड़े हैं । किन्तु जब रोग प्रतिरोधात्मक शक्ति प्रबल होती है तब उनका आक्रमण विफल हो जाता है । जब मनुष्य की प्राण शक्ति कमजोर हो जाती है, तब उनका आक्रमण सफल हो जाता है । जब आदमी की जागरूकता की शक्ति प्रबल होती है, आदमी अपने लक्ष्य के प्रति पूरा जागरूक रहता है तो फिर कोई कठिनाई नहीं आती । दो दिशाएं हैं। एक है - मूर्च्छा की दिशा और दूसरी है - जागरूकता की दिशा । मूर्च्छा अंधता है, जागरूकता प्रकाश है । आज का आदमी लक्ष्य से हटकर मूर्च्छा का जीवन जी रहा है । वह अंधकार में भटक रहा है । वह मूच्छित है । वह कभी-कभी जान-बूझकर अन्धेपन को स्वीकार कर लेता है, मूर्च्छा को स्वीकार कर लेता है । यह नहीं मानना चाहिए कि सब करते हैं । इस दुनियां में जो आदमी Jain Education International अंधता को अनजान में ही स्वीकार मूर्च्छा का जीवन जी रहे हैं, वे सव For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003084
Book TitleAvchetan Man Se Sampark
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages196
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size9 MB
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