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________________ २२ अवचेतन मन से संपर्क भेजा । उसे पूछा---'तूने यह चर्चा की ? भगवान् पर पक्षपात का आरोप लगाया ?' वह यह सब सुनकर कांप उठा । अस्वीकार भी कैसे करे ? उसने सब कुछ स्वीकार कर लिया। भरत ने कहा--इसे शूली पर चढ़ा दो। इसने जघन्य अपराध किया है भगवान् पर दोषारोपण कर । शूली की सजा सुनते ही वह कांप उठा। उसने गिड़गिड़ाते हुए कहा-'महाराज ! अब मैं ऐसा कभी नहीं करूंगा। इस बार क्षमा करें। मैंने बिना सोचे-समझे ऐसा कह दिया था। अब आप क्षमा करें, मुझे जीवनदान दें।' भरत ने कहा---एक शर्त पर मैं तुझे मुक्त कर सकता हूं। वह शर्त यह है कि तुम अपने हाथ में तेल से भरे कटोरे को लेकर पूरी अयोध्या नगरी में घूम आओ । पर ध्यान रहे, तेल की एक बूंद भी नीचे न गिरने पाए। जहां बूंद नीचे गिरी, वहीं तुम्हारा सिर काट दिया जाएगा।' शर्त बहुत कठोर थी। पर मरता क्या नहीं करता । उसने शर्त स्वीकार कर ली। तेल का भरा कटोरा हाथ में ले उसने अयोध्या की मरण-यात्रा प्रारम्भ की। सारे नगर की परिक्रमा कर वह सम्राट के पास पहुंचा। भरत ने पूछा-'कहीं तेल की बूंद गिरी तो नहीं ?' 'गिरती तो यहां केसे पहुंचता ? आपके सिपाही वहीं मेरा काम-तमाम कर डालते।' 'अच्छा, यह तो बताओ, तुमने अयोध्या के बाजारों में क्या देखा ?' 'महाराज ! मैंने तो कुछ भी नहीं देखा।' 'अरे, स्थान-स्थान पर नाटक हो रहे थे, नाच-गाने हो रहे थे, बाजे बज रहे थे। क्या तुमने कुछ भी नहीं देखा ? कुछ भी नहीं सुना ? 'महाराज ! कुछ भी नहीं देखा, कुछ भी नहीं सुना।' 'क्या तुम बाजारों से नहीं गुजरे?' 'महाराज ! वहीं से तो घूमघाम कर आया हूं।' 'फिर तुम्हें राग-रंग का पता कैसे नहीं चला?' । 'महाराज ! मेरा सारा ध्यान कटोरे में था। उसमें मुझे मौत दीख रही थी। एक मौत नहीं, हजारों मौतें । प्रत्येक बूंद मौत का पैगाम लिए हुए थी। मैं पूर्ण जागरूक था। कटोरा और जीवन-दो ही दीख रहे थे। दोनों की युति थी। कटोरा गिरा कि जीवन गिरा । कटोरा बचा कि जीवन बचा। जीवन का और कटोरे का एक अर्थ हो रहा था। मेरी सारी दृष्टि, मेरी समूची चेतना, मेरी सारी प्राणशक्ति इस कटोरे पर टिकी हुई थी। मुझे नहीं पता कि कहां क्या हो रहा था।' .. देखो, जैसे तुम्हारी दृष्टि केवल कटोरे पर थी, वैसे ही मेरी दृष्टि मुक्ति पर है । जैसे तुमने कुछ नहीं देखा वैसे ही मैं केवल मुक्ति के सिवाय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003084
Book TitleAvchetan Man Se Sampark
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages196
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size9 MB
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