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________________ काम परिष्कार का दूसरा सूत्र : परिणाम दर्शन १६ का पता ही नहीं चलता । भीतर में ज्योति बुझी नहीं है । वह बुझती भी नहीं है । एक बार जो ज्योति जल जाती है, वह अखण्ड ज्योति बन जाती है । यदि वह भी बुझ जाए तो राख का साम्राज्य हो जाए। फिर अंधकार से उबारने में भगवान् भी समर्थ नहीं हो सकता । हर आदमी इसीलिये बचा हुआ है कि उसके भीतर अज्ञात ज्योति जल रही है, अखण्ड ज्योति जल रही है । उसके भीतर ऐसी प्रकाश की उर्मि उठ रही है कि वह आंख मूंदकर चलने वाले आदमी को जगा देती है । वह ज्योति हमारी चेतना का अस्तित्व है, चेतना का परिणमन है । इसे दार्शनिक भाषा में पारिणामिक भाव' कहा गया | प्रतिक्षण चेतना का परिणमन हो रहा है इसलिए वह ज्योति कभी नहीं बुझती । कर्म का आवरण कितना ही सघन क्यों न हो, वह उस ज्योति को ढंक सकता है, बुझा नहीं सकता । मुख्य आवरण चार हैं- -ज्ञान का आवरण, दर्शन का आवरण, मोह का आवरण और शक्ति का आवरण । ये कितने ही गहरे क्यों न हों, पर वह ज्योति बुझती नहीं । आकाश में कितने ही बादल क्यों न छा जाएं, घनघोर घटा क्यों न उमड़ पड़े, सूरज को ढांक लें, पर दिन और रात का विभाग बना रहता है । दिन कभी रात नहीं बनता । घनघोर अन्धकार हो जाने पर भी यह प्रतीति बनी रहती है कि अभी रात नहीं है, दिन है । दिन और रात की भेदरेखा स्पष्ट रूप से हमारे सामने रहती है। इसी प्रकार ज्योति और अंधकार की भेदरेखा भी स्पष्ट बनी रहती है । हमारा अस्तित्व निरन्तर गतिशील है, चलमान है । वह परिवर्तनशील एवं स्वयं प्रकाशी है । जब हम ज्योति के क्षण में जीते हैं, उस ज्योति के प्रदेश में हमारा प्रवेश होता है, तब उद्देश्य स्वयं प्रगट होता है और वह उद्देश्य है अस्तित्व की मुक्ति, अस्तित्व की स्वतन्त्रता, विजातीय से मुक्ति । विजातीय से मुक्त हो जाना, हमारा स्वयभूत उद्देश्य है । इस प्रकार हमारा अंतिम और मौलिक उद्देश्य है- मुक्ति, केवल चैतन्य में रमण, केवल चैतन्य में रमण । मुक्ति कोई विलक्षण पदार्थ नहीं है । मुक्ति कोई विशेष स्थान की प्राप्ति नहीं है । मुक्ति कोई पारलौकिक बात नहीं है । मुक्ति है केवल चैतन्य का अनुभव | मुक्ति है केवल शुद्ध अस्तित्व का अनुभव | जहां शुद्ध चेतना का अनुभव होता है, कषाय की सारी कल्मषता छूट जाती है तब मुक्ति का सहज अनुभव प्रगट होता है । जल की विशुद्ध धारा बहती है । उसमें गन्दे पानी की नालियां आकर मिल जाती हैं । उस धारा का पानी गन्दला सा लगने लग जाता है । पानी na गन्दला होता है ? पानी का काम है गन्दगी को मिटाना । उसका काम है। दूसरों को निर्मल कर देना । दूसरों को निर्मल करने वाला पानी गन्दा कैसे हो सकता है ? किन्तु गन्दगी बाहर से आकर उसमें मिलती है और वह गन्दा हो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003084
Book TitleAvchetan Man Se Sampark
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages196
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size9 MB
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