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________________ २० अवचेतन मन से संपर्क जाता है । पानी तरल होता है उसकी तरलता सबको मिला लेती है । तब गन्दला जैसा बन जाता है पानी। किन्तु उसकी मूल प्रकृति है-निर्मलता। उस प्रकृति को नहीं मिटाया जा सकता । गन्दगी को अलग किया और पानी वैसा निर्मल । आगन्तुक गन्दगी को मिटाया जा सकता है, उससे मुक्ति हो सकती है। चेतना की मूल धारा विशुद्ध है। उसके साथ गन्दगी मिल गई, वह गन्दी हो गई, विकृत हो गई। गन्दगी हटी और वह पुनः निर्मल बन गई। चेतना की निर्मलता सामने आ जाती है । चेतना को निर्मल करना ही हमारा उद्देश्य है। प्रश्न है-मुक्ति कैसे सम्भव है ? मनुष्य कितने बन्धनों का जीवन जी रहा है ! पदार्थों के बिना आदमी जी नहीं सकता । वह जीवन की अनिवार्यता है । पदार्थ की प्रकृति है बांधना, मूर्छा पैदा करना। इस स्थिति में मुक्ति की बात कैसे हो सकती है ? पदार्थ के बिना जिया नहीं जा सकता और पदार्थ के साथ रहकर मूर्छा को समाप्त नहीं किया जा सकता। इस स्थिति का निवारण कैसे हो ? अध्यात्म के आचार्य ने एक उपाय खोजा । उन्होंने कहातुम्हारी मुक्ति हो सकती है । यदि तुम केवल बाहर से मुक्त होना चाहोगे तो बात कठिन होगी। तुम पदार्थों के साथ रहो, पदार्थों का उपयोग करो किन्तु भीतर में मुक्त होना शुरू करो। तुम्हारी मुक्ति अवश्य ही घटित होगी। यह प्रक्रिया साधना की एक महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया है । एक साधु भी पदार्थ से सर्वथा मुक्त होकर नहीं जी सकता तो गृहस्थी में रहने वाला पदार्थ-मुक्त होकर कैसे जी सकता है ? यह शरीर भी तो एक पदार्थ ही है, परमाणुओं का पिण्ड है । कपड़े भी पदार्थ ही हैं । श्वास भी एक पदार्थ है, पौद्गलिक है । रोटी खाना, पानी पीना, धूप लेना, सर्दी, गर्मी, मकान-ये सारी जीवन की आवश्यकताएं, अनिवार्यताएं हैं। ये सब पदार्थ हैं, पुद्गल हैं, विजातीय हैं । साधु भी इनसे मुक्त नहीं हो सकता, गृहस्थ की बात ही क्या ? यदि भीतर से मुक्त होने की प्रक्रिया नहीं है तो बाहर से मुक्ति की प्रक्रिया चलने पर भी मुक्ति नहीं हो सकती। कुछ व्यक्ति बाहर से मुक्त होने का प्रयत्न करते हैं पर भीतर में बंधे के बंधे रह जाते हैं। इस अवस्था में सम्राट भरत का चरित्र हमारे सामने प्रस्तुत होता है। उनका चरित्र बड़ा विलक्षण है । वह जीवन की नई दृष्टि, नई कल्पना देता है। एक बार भगवान् ऋषभ अयोध्या के परिसर में पधारे । भरत वंदना के लिए गया । उसका पूरा परिकर भी साथ था। वंदना कर सब परिषद् में बैठ गए। भगवान ने प्रवचन किया। अन्त में भरत ने पूछा- 'भगवन् ! क्या आपकी इस परिषद् में ऐसा भी कोई प्राणी है, जो भविष्य में तीर्थंकर होगा ? भगवान् ने कहा --- 'हां, है।' भरत ने पूछा-'कौन है भन्ते ?' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003084
Book TitleAvchetan Man Se Sampark
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages196
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size9 MB
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