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काम-परिष्कार का दूसरा सूत्र : परिणाम दर्शन
जीवन का उद्देश्य क्या है-यह प्रश्न एक बार नहीं, अनेक बार पूछा जाता रहा है। इसका उत्तर देना सरल नहीं है, बहुत कठिन है । प्रत्येक आदमी अपना-अपना उद्देश्य बनाए बैठा है । किसी व्यक्ति का उद्देश्य है-- करोड़पति बनना। किसी का उद्देश्य है मन्त्री बनना और किसी का उद्देश्य है अधिकारी बनना, धर्माचार्य बनना-भिन्न-भिन्न उद्देश्य हैं। जितने व्यक्ति, उतने उद्देश्य ।
जीवन का अमुक उद्देश्य है, ऐसा कहना समस्या में उलझना है, क्योंकि हमारा उद्देश्य उधार लिया हुआ है । अपना स्वयं का उद्देश्य कोई नहीं लगता। सारे उद्देश्य उधार लिए हुये उद्देश्य हैं। उधार उधार होता है। मांगने पर लौटाना होता है।
___ एक व्यक्ति ने कहा-'अरे, भले आदमी ! मेरा छाता लौटाओ।' उसने कहा--'इतनी क्या जल्दी है ? अभी तो मांगकर लाया हूं।' वह बोला-मेरा मित्र मांग रहा है, जिससे मैं छाता मांगकर लाया था और उससे वह तीसरा व्यक्ति मांग रहा है, जिससे वह मांगकर लाया था।
सारा उधार ही उधार । वह उससे मांगकर लाया है, वह दूसरे से और वह तीसरे से । जो मांगकर लाया गया है, उधार लिया गया है, उसे तो लोटाना ही होगा । हमने भी शायद उद्देश्यों को उधार ले रखा है । हमारा कोई वास्तविक उद्देश्य नहीं है।
उद्देश्य बुद्धि के द्वारा निर्धारित होता है। बुद्धि जिस दिशा में प्रस्थित होती है, उद्देश्य उसी दिशा में बन जाता है । वास्तविक उद्देश्य अपने आप वहां प्रगट होता है जहां बुद्धि काम नहीं देती, जहां बुद्धि की सीमा समाप्त हो जाती है। हमारे जीवन में बुद्धि ही सब कुछ नहीं है । वह सर्वस्व नहीं है। वह ससीम है, असीम नहीं है। आदमी बुद्धि को असीम मान बैठा है। पर वह असीम कैसे हो सकती है ? इन्द्रियों और मन की चेतना असीम नहीं है तो फिर बुद्धि की चेतना असीम कैसे हो सकती है ? वह सीमित है किन्तु उसके आगे के सारे द्वार बन्द हैं, इसलिए हमने उसे असीम मान लिया है । यह केवल मानी हुई बात है, यथार्थ नहीं है । जब हम बुद्धि की सीमा का उल्लंघन कर आगे बढ़ते हैं तब ज्ञात होता है कि जीवन का उद्देश्य क्या है ? वह उद्देश्य हमारे भीतर छिपा बैठा है। उस पर आवरण आए हुए हैं । आग भीतर जल रही है, ऊपर राख का ढेर इतना आ गया है कि भीतर की ज्योति
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