SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 27
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ काम-परिष्कार का पहला सूत्र : मुक्तिदर्शन १७ आलंबनों को लेना होता है। आलम्बन मन को प्रशिक्षित करने के प्रयत्न हैं । अभ्यास और प्रशिक्षण के बिना अन्तर्लक्ष्य बनता नहीं । अन्तर्लक्ष्य बनाने के लिए हमें व्यवस्थित प्रशिक्षण से गुजरना होगा, अभ्यास करना होगा । शरीर को प्रशिक्षित करने से वह भी अद्भुत काम करने लग जाता है । आदमी कानों को नहीं हिला सकता । अन्यान्य अनेक अवयवों को आदमी अपनी इच्छा से हिला सकता है। पर कान और केश आदमी की इच्छा से नहीं हिल सकते । यदि प्रशिक्षण दें तो कान भी हिल सकते हैं । असंभव लगने वाले कार्य भी प्रशिक्षण के द्वारा संभव बन जाते हैं। प्रशिक्षित पशु भी विचित्र कार्य करने में सक्षम हो जाते हैं। आदमी तो बुद्धिमान् प्राणी है । उसका शरीर सधा हुआ है । वह प्रशिक्षण के द्वारा और भी अद्भुत कार्य कर सकता है । पेट की मांसपेशियों को प्रशिक्षित करने पर पाचन की क्षमता बढ़ जाती है। आंतों को प्रशिक्षण देने पर कोष्ठबद्धता समाप्त हो जाती है। हमारे शरीर के ज्ञानतन्तु बहुत ग्रहणशील हैं। यदि उन्हें दुलारें, प्यार करें, सहलाएं, प्रेम से आदेश दें तो वे सब आदेशों को स्वीकार कर लेंगे। आवश्यकता है निरन्तर अभ्यास और प्रशिक्षण की। एक भाई ने बताया-मैं अब प्रेक्षा-ध्यान में बैठता हूं तो मेरे सामने रंग आने लग जाते हैं। मैंने लेश्या ध्यान के बारे में पढ़ा था। मैंने प्रयोग प्रारंभ किए। अभ्यास बढ़ा । रंगों का साक्षात्कार होने लगा। मेरा स्वभाव बदल गया, चिड़चिड़ापन मिट गया, उत्तेजना कम हो गई और आज मैं बहुत शांति का अनुभव कर रहा हूं। यह सारी निष्पत्ति मेरे निरन्तर अभ्यास से हुई है। जो अभ्यास करते हैं, वे धीरे-धीरे उस क्रिया को साध लेते हैं। जो अभ्यास ही नहीं करते, केवल बातें बनाते हैं, वे कुछ भी नहीं कर पाते। प्रशिक्षण के द्वारा शरीर की स्थिति को बदला जा सकता है । प्रशिक्षण के द्वारा मन की अवस्था को, भावधारा को बदला जा सकता है। यह सारा अभ्यास और प्रशिक्षण पर निर्भर है। जैसे-जैसे अभ्यास बढ़ेगा, जैसे-जैसे ज्ञानतन्तु प्रशिक्षित होंगे, वैसे-वैसे हमें नई शक्तियां उपलब्ध होंगी, नई चेतना का साक्षात्कार होगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003084
Book TitleAvchetan Man Se Sampark
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages196
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy