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अवचेतन मन से संपर्क
एक आदमी को देखा और देखते ही आंखें लाल हो गईं। देखा बाद में और आंखें लाल पहले ही हो गई ? क्यों ? देखा बाद में, स्मृति पहले हो गई कि यह वही व्यक्ति है, जिसने मुझे सताया था । व्यक्ति गौण हो गया, दर्शन गौण हो गया और स्मृति सामने आ गई। उस स्थिति में वह व्यक्ति को यथार्थ रूप में नहीं देख पाता । वह उसे स्मृति के आधार पर देखता है। वह स्मृति के चश्मे से व्यक्ति को देखता है। यह प्रेक्षा नहीं है। देखने के साथ स्मृति जुड़ गई । स्मृति और कल्पना-ये दोनों वासनाओं पर दबाव डालते हैं। न जाने जीवन में किन-किन व्यक्तियों के साथ कैसे-कैसे सम्पर्क रहे हैं और जब वे व्यक्ति सामने आते हैं तब व्यक्ति सामने नहीं रहता, स्मृति या कल्पना सामने आकर खड़ी हो जाती है। किसी के साथ प्रियता की स्मृति जुड़ी होती है और किसी के साथ अप्रियता की स्मृति जुड़ी हुई होती है। कल्पना में भी ऐसा ही होता है।
एक बार कंस ने अष्टांग निमित्त के ज्ञाता से पूछा-मैं अपनी मौत मरूंगा या किसी के हाथों मेरी मौत होगी ? इस प्रश्न के पीछे कंस की वासना काम कर रही थी, उसके मन में वासना थी, अपराध थे, उसके कुछ काले कारनामे थे। उसे लगता था कि कोई न कोई उसे मारेगा। इसीलिए उसने नैमित्तिक से प्रश्न पूछा था । नैमित्तिक ने कहा- तुम्हारी मृत्यु उसके हाथ से होगी, जो तुम्हारे ..... "मल्ल को मारेगा ।
कंस की एक वासना ने काम किया और दूसरी वासना उभर गई।
क्या मरने का प्रश्न भी पूछने जैसा होता है ? क्यों पूछा जाता है यह प्रश्न ? जब मरना है तब मरना है। मरना है बीस वर्ष बाद और मरने का भय अभी से सताने लग जाता है। वह बीस वर्ष बाद नहीं, आज ही मरने लग जाएगा, अधमरा हो जाएगा।
प्रेक्षा के अभ्यासी के मन में मौत का प्रश्न नहीं उठना चाहिए। एक भाई ने पूछा-मुझे डर बहुत लगता है । क्यों लगता है, यह नहीं जान पाता। स्पष्ट कारण कुछ भी नहीं है, पर हर बात का डर लगता है।
मैंने कहा--भय इसलिए लग रहा है कि अभी तक प्रेक्षा का अभ्यास परिपक्व नहीं हुआ है। सबसे बड़ा भय है मृत्यु का। मौत से बड़ा कोई भी डर का कारण नहीं है। किन्तु प्रेक्षा का अभ्यास करने वाला व्यक्ति मृत्यु के साथ भी निकटता से सम्पर्क स्थापित कर लेता है और उसे पहचान लेता है । पहचानने के बाद डर की बात समाप्त हो जाती है। उसके लिए मौत केवल मौत रह जाती है । हमने अपनी कल्पना के कारण ही मौत को भयानक माना है। जब कपड़ा पुराना हो जाता है तब उसको उतार कर नया कपड़ा पहनना पड़ता है। यह स्वाभाविक बात है पर पुराने के साथ हमारा संस्कार इतना पुष्ट है कि पुराने कपड़े को फेंकने में भी हमें खतरा
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