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________________ १४८ अवचेतन मन से संपर्क का संचालन करती है तब व्यक्ति की स्वतन्त्रता नष्ट हो जाती है और वह प्रेरणा मुख्य बन जाती है। इस स्थिति में जीवन का सारा तन्त्र गड़बड़ा जाता है। ... पुराने काल की बात है । आचार्य शुभंकर के संपर्क में एक युवक आया। उसका नाम था सुव्रत । उसका वैराग्य बढ़ा और वह साधु बन गया। एक बार आचार्य शुभंकर पद-विहार करते-करते राजगृह पहुंचे। वे स्थान पर आ गये । श्रावक आकर बोले--गुरुदेव ! आज हम आपकी अगवानी में नहीं आ सके, इसका हमें खेद है। आज नगर में मोदक-महोत्सव है। इस उत्सव को हम मोदक खाकर मनाते हैं। वे मोदक साधारण नहीं होते, केसरिया मोदक होते हैं। मुनि मुव्रत ने 'केसरिया' मोदक का नाम सुना । उसकी वासना जाग गई। वह संपन्न घर का था और गृहस्थ अवस्था में केसरिया मोदक का शौकीन था। साधु बनने के बाद मोदक कहां से आए ? नाम सुनते ही वासना जाग गई। आचार्य ने उस दिन उपवास कर लिया। शेष मुनियों ने भी उपवास कर लिया। अब केवल मुनि सुव्रत बचा। उसकी भावना और तीव्र हो गई। उसने सोचा--अब कोई संविभाग लेने वाला नहीं है । आज जी भर केसरिया मोदक खाऊंगा। वह भिक्षा की आज्ञा लेकर नगर में गया। अब वह घर-घर केसरिया मोदक के लिए घूमने लगा। सभी घरों में तो वे होते नहीं। कहीं-कहीं सम्पन्न घरों में ही होते हैं। वह घंटों तक घूमता रहा पर उसे एक भी केसरिया मोदक नहीं मिला । वासना प्रबल होती गई । वह घूमता रहा। पागलपन छा गया। वह इतना विह्वल बन गया कि उसे याद ही नहीं रहा कि वह साधु है। जब व्यक्ति में कोई आकांक्षा प्रबल होती है तब वह बेभान हो जाता है और यह देखने वाली दृष्टि समाप्त हो जाती है। तब तक आदमी अच्छा है जब तक किसी बात की आकांक्षा प्रबल नहीं होती। आकांक्षा विह्वलता का रूप न ले, यह अपेक्षित है। - मुनि सुव्रत घूमता रहा । धूमते-घूमते सांझ हो गई । रात हो गई। वह संतप्त होकर 'केसरिया मोदक', 'केसरिया मोदक' रट लगाने लगा। जोर-जोर से शब्द करता रहा । एक व्यक्ति ने सुना । उसने कहा-महाराज ! मेरे घर आएं। केसरिया मोदक दूंगा। मुनि प्रसन्नता से उसके घर गया। मोदक लिया और मन हर्ष से उछल पड़ा। उसने ऊपर देखा । तारे चमचमा रहे थे। रात आधी बीत चुकी थी। उसे होश आया। उसने सोचा-अब मोदक कैसे खाऊंगा? वह आचार्य के पास जाने के लिए तैयार हुआ । श्रावक ने कहा-महाराज ! यहीं मेरी उपासनाशाला में ठहर जाएं। वहीं ठहर गए । अब दृष्टि बदल गई। न केसरिया मोदक की चाह, न भ्रमण, न व्याकुलता। अपने असद् आचरण पर पश्चात्ताप । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003084
Book TitleAvchetan Man Se Sampark
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages196
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size9 MB
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