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________________ १४२ अवचेतन मन से संपर्क लक्ष्य है अनाज पैदा करना। घास-फस पैदा करना खेती का लक्ष्य नहीं हो सकता । वह प्रासंगिक फल है। ध्यान से शरीर स्वस्थ होता है, बीमारियां मिटती है, सौन्दर्य बढ़ता है, यह उसकी मुख्य फलश्रुति नहीं है। उसकी मुख्य फलश्रुति है--चित्त की निर्मलता, चित्त की शांति । हमारे भीतर अनेक प्रकार की मलिनताएं हैं। मलिनता से आदमी का चिन्तन मलिन होता है, निर्णय मलिन होता है। जब निर्मलता बढ़ती है तब मति, स्मृति, चिंतन, कल्पना, निर्णय-सारे निर्मल और पवित्र बन जाते हैं । जिस व्यक्ति का मन मलिन होता है, उसका चिंतन, मनन सभी मलिन हो जाते हैं। निर्मल चित्त वाला व्यक्ति हर बात को पवित्रता के दर्पण में देखता है। . महाराष्ट्र के दो संत बहुत प्रसिद्ध हुए हैं-तुकाराम और एकनाथ । एकनाथ की पत्नी बहुत सरल, विनम्र और अनुकूल थी। तुकाराम की पत्नी अत्यन्त क्रोधित, अविनीत और प्रतिकूल थी। दोनों की दिशाएं अत्यन्त भिन्न थीं। किन्तु दोनों साधक-एकनाथ और तुकाराम बहुत जागरूक थे । एकनाथ ने आसक्ति भाव नहीं बढ़ने दिया और तुकाराम ने द्वेष को उभरने नहीं दिया । एकनाथ निरन्तर सोचते रहते -- देखो, मेरे पर प्रभु की कितनी बड़ी कृपा है। मुझे कितनी विनीत और अनुकल पत्नी मिली है। मुझे सत्संग के लिए कहीं बाहर जाने की जरूरत नहीं होती। घर में ही सत्संग हो जाता है । तुकाराम सोचते---प्रभु की कितनी कृपा है ! मुझे ऐसी पत्नी का योग मिला है कि मेरा घर में मोह ही नहीं बढ़ता। अन्यथा यह बहुत संभव था कि मैं घर-गृहस्थी में फंस जाता, घर की आसक्ति बढ़ जाती और मैं प्रभु को भुला देता। किन्तु आसक्ति और मूर्छा को बढ़ने का यहां अवसर ही नही मिलता। ऐसा चितन निर्मल चित्त वाले व्यक्ति ही कर सकते हैं। वे हर घटना को निर्मल और क्षम्य बना डालते हैं । वे प्रत्येक घटना से सार ग्रहण कर लेते हमारा उद्देश्य है-चित्त की निर्मलता का सम्पादन । प्रतिक्षण रागद्वेष का मल जमता रहता है । एक भी दिन या क्षण खाली नहीं जाता, जिसमें यह मल नहीं जमता हो। हमारा प्रत्येक चिंतन या प्रवृत्ति रागद्वेष से संचालित होती है। राग-द्वेष से मुक्त प्रवृत्ति या चितन होता ही नहीं, ऐसा कहना अतिशयोक्ति नहीं है। हमारे दो आंखें हैं। इनमें से एक को हम प्रियता की अनुभूति करने वाली आंख और दूसरी को अप्रियता की अनुभूति करने वाली आंख कह सकते हैं । हम बाह्यरूप में आंखें बन्द कर लें, फिर भी भीतर की ये दोनों आंखें सदा खुली रहती हैं। एक ओर मैल जमने का, मूर्छा के सघन होने का चक्र चल रहा है और दूसरी ओर हमारा कोई सलक्ष्य प्रयत्न नहीं है उस मैल को धोने का, उस मूर्छा को तोड़ने का । शांति कैसे संभव हो सकती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003084
Book TitleAvchetan Man Se Sampark
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages196
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size9 MB
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