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________________ जीवन विज्ञान १३३ आजकल विज्ञान के क्षेत्र में एक नई अवधारणा पनप रही है । पहले साईकोलोजी का विकास हुआ, फिर पेरासाईकोलोजी का विकास हुआ और उसमें मान लिया गया कि 'एक्स्ट्रा सेन्सरी परसेप्सन (ई० एस० पी०), किसी किसी आदमी में होता है। यह साधारण बात नहीं है। यह अपवाद स्वरूप होता है और यह इन्द्रियज्ञान से परे की बात है । आज पेरासाईकोलोजी की इस मान्यता में परिवर्तन आ गया। अब विज्ञान मानता है कि यह ई० एस० पी० सब मनुष्यों में होता है । यह अतीन्द्रियज्ञान सब मनुष्यों में उपलब्ध है। कोई व्यक्ति इस ज्ञान का उपयोग करनो जाने या न जाने, इसका विकास करना जाने या न जाने, किन्तु इसका अस्तित्व सबमें होता है। प्रत्येक व्यक्ति में, प्रत्येक बालक में अच्छाई की शक्ति भी होती है और बुराई की शक्ति भी होती है। यदि वह प्रयोग के द्वारा अच्छाई के पक्ष को, प्रकाश के पक्ष को विकसित करता है तो प्रकाश से भर जाता है । यदि वह बुराई के पक्ष को, अन्धकार के पक्ष को विकसित करता है तो अन्धकार से भर जाता है। अन्धकार भी तो उसके भीतर है और प्रकाश भी उसके भीतर है । अच्छाई भी उसमें है और बुराई भी उसमें है । प्रश्न है कि किसका स्विच ऑन किया जाए ? विद्यार्थी की समझ में यह बात आ जाए, यह धारणा जम जाए कि सब समान है, 'सब उसका विकास कर सकते हैं तो बहुत बड़ी बात हो सकती है। दूसरी धारणा यह हो कि विकास के लिए एक उपाय, पद्धति या प्रयोग अपेक्षित होता है। यदि पद्धति मिल जाए और उसका सही उपयोग किया जाए तो प्रत्येक आदत को बदला जा सकता है । मनुष्य के मन में यह धारणा विद्यमान है-आचरण और व्यवहार को बदला नहीं जा सकता। स्वभाव, आचरण और व्यवहार अपरिवर्तनीय है। भगवान महावीर ने कहा-'भंते ! आपका निर्वाण हो रहा है और इस निर्वाण के समय भस्मग्रह का योग हो रहा है । यह अनिष्टकारी है। आप अपनी आयु को दो क्षण बढ़ा दें या दो क्षण घटा दें। इस समय को टाल दें तो अनेक समास्याएं समाप्त हो जाएंगी।' भगवान् बोले-ऐसा हो ही नहीं सकता। सामान्य लोगों ने इस तर्क को पकड़ लिया। हर एक आदमी कहने लग गया कि मौत इधर-उधर नहीं हो सकती। अरे ! महावीर की मौत इधर-उधर नहीं हो सकती, उसका भी पुष्ट कारण है, पर तुम्हारी मौत इधरउधर हो सकती है। तुम पहले भी मर सकते हो और बाद में भी मर सकते कुछ व्यक्ति भोजन में असंयत और अनियमित होते हैं। उनके जीवन की सारी चर्या अनियंत्रित होती है। जब कहा जाता है कि भोजन में परहेज Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003084
Book TitleAvchetan Man Se Sampark
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages196
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size9 MB
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