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अवचेतन मन से सम्पर्क
सांसारिक सम्बन्धों से टूट जाता है । उसका प्रस्थान दूसरे संसार के लिए हो जाता है।
दो बातें हैं। एक है--कामना की पूर्ति और दूसरी है-कामना का परिष्कार।
कामना की पूर्ति का साधन है—अर्थ । यह जीवन का दूसरा पुरुषार्थ है । अर्थ के आधार पर ही कामनाओं को पूरा किया जाता है । मन में कामना जागती है । अर्थ-व्यय से वह पूरी हो जाती है । मन में कामना जागी, अमुक प्रकार का कपड़ा पहनें, अमुक मिठाई खाऊं । पास में पैसा है। बाजार में गया, कपड़ा खरीदा, पहन लिया। मिठाई खरीदी, खाली । कामना की पूर्ति हो गई।
कामना की पूर्ति का साधन अर्थ जीवन का दूसरा आयतन बन जाता है। निरंकुश कामना और निरंकुश अर्थ-ये दोनों अपरिष्कृत रहकर व्यक्ति में जो परिवर्तन लाते हैं, वह परिवर्तन मानसिक अशांति को जन्म देता है। मानसिक अशांति के दो मुख्य कारण हैं-निरंकुश काम और निरंकुश अर्थ । जब तक इन दोनों का परिष्कार घटित नहीं होता, तब तक आदमी बेचनी, अवसाद, हीनता, डिप्रेसन आदि से बच नहीं सकता।
___ आदमी कामनाओं से आक्रान्त है । उनकी पूर्ति के लिए उसने अर्थ भी जुटा लिया किंतु उसकी मानसिक व्यग्रता आकाश को छूने लग गई। वह और अधिक अशांत हो गया। आज के विकसित राष्ट्र जो साधनों से संपन्न हैं, जिनके पास प्रचुर वैभव है, संपत्ति है, अर्थ के श्रोत हैं, वे इस मानसिक अशांति के जीते जागते उदाहरण हैं ।
एक भाई ने बताया-संसार का छियालीस प्रतिशत धन केवल एक राष्ट्र अमेरिका के पास है। शेष चौवन प्रतिशत धन सारे संसार के पास है। एक राष्ट्र के पास इतना प्रचुर धन ? क्या होगा? जितना प्रचुर धन उतना ही प्रचुर असंतोष ! इस असंतोष की तुलना में कहा जा सकता है कि विश्व में जितने अपराध होते हैं उनका छियालीस प्रतिशत हिस्सा अमेरिका को मिलेगा और चौवन प्रतिशत शेष संसार को प्राप्त होगा। कितना अपराध ! धन की प्रचुरता, असंतोष की प्रचुरता और अपराध की प्रचुरता।
इन सारे तथ्यान्वेषणों से एक निष्कर्ष निकलता है-अपरिष्कृत काम और अर्थ नई व्याधियों को उत्पन्न करते हैं, नई व्याधियों को जन्म देते हैं, मानसिक दुःखों को प्रगट करते हैं। इस स्थिति में यह अपेक्षा प्रत्यक्ष होती है कि इन दोनों का परिष्कार किया जाए।
परिष्कार का साधन है-धर्म। धर्म के द्वारा काम का परिष्कार किया जा सकता है । धर्म के द्वारा अर्थ का परिष्कार किया जा सकता है।
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