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अवचेतन मन से संपर्क
ध्यान करने वाले को छोटा-मोटा अनुभव न हो । जो व्यक्ति केवल प्रक्रिया का द्रष्टा होता है, प्रयोक्ता नही होता, उसे कुछ भी नहीं मिलता। दृष्टा होना बुरा नहीं है परन्तु उपलब्धि के लिए प्रयोक्ता बनना अनिवार्य शर्त है।
ध्यान भावशुद्धि का प्रयोग है। इसमें भावना का साक्षात्कार होता है, अनुभव होता है । ध्यान की उपसंपदा स्वीकार करते समय साधक भावक्रिया की उपसंपदा स्वीकार करता है । आचार्य सिद्धसेन ने लिखा--'यस्मात् क्रिया प्रतिफलन्ति न भावशून्याः'-भावशून्य क्रियाएं फलित नहीं होतीं, निष्फल होती हैं । आदमी कितना ही प्रयत्न करे, यदि उसका प्रयत्न भावशून्य है तो वह व्यर्थ चला जाएगा। श्वासप्रेक्षा, शरीरप्रेक्षा या चैतन्य केन्द्र-प्रेक्षा—ये सारी प्रवृत्तियां बहुत बड़ी नहीं हैं, साधारण हैं। पर जब इनके साथ हमारा भाव जुड़ जाता है तब श्वासप्रेक्षा बहुत मूल्यवान् बन जाती है, शरीरप्रेक्षा और चैतन्य-केन्द्रप्रेक्षा बहुत मूल्यवान् बन जाते हैं। जब रंगों के साथ और लेश्या के साथ भाव संयुक्त होता है तब रंगप्रेक्षा, लेश्याप्रेक्षा का महत्त्व बढ़ जाता है। मूल्य बढ़ता है भाव से। भाव बहुत महत्त्वपूर्ण है। भाव नहीं जुड़ता है तो ये सारी क्रियाएं दस-बीस-पचास वर्षों तक करते रहो, निष्पत्ति मात्र शून्य रहेगी । भाव जुड़ने पर ही ये प्रवृत्तियां सार्थक होती हैं। भाव है हमारी चेतना । जब क्रिया के साथ चेतना ही नहीं है तो उसकी अंधता नहीं मिट सकती।
पदार्थ की मूर्छा के कारण व्यक्ति अंधा बना हुआ है। यह अंधता बहुत व्यापक है। यह पूरे समाज में व्याप्त है। सारी बुराइयां और विकृतियां इस अंधता के कारण पनप रही हैं । आदमी जानबूझकर इस अंधता को पाल रहा है । मूर्छा, व्यामोह, आसक्ति-ये आदमी की अंधता को बढ़ाते हैं । जब तक मूर्छा और व्यामोह नहीं टूटता, जब तक आन्तरिक चेतना में जागरण की किरण नहीं फूटती तब तक समस्या का समाधान संभव ही नहीं है।
ध्यान का प्रयोग मूर्छा के चक्रव्यूह को तोड़ने का प्रयोग है । उस पर ऐसी चोट हो कि वह व्यूह चकनाचूर हो जाए । जो आदमी मूर्छा के कीचड़ में फंसा हुआ है, वह बाहर निकल जाए-यही है चैतन्य का अनुभव ।
__ अध्यात्म का अर्थ है--चैतन्य का अनुभव । जो व्यक्ति चतन्य की अनुभूति में नहीं जाता, वह कभी आध्यात्मिक नहीं हो सकता। जो लोग चैतन्य की अनुभूति न कर केवल बाह्य उपासनाओं और क्रियाकांडों में उलझ जाते हैं, उन्हें धर्म का रसास्वादन कभी नहीं हो सकता।
कड़छी केवल भोजन को उठा सकती है, थाली तक ले जा सकती है, परोस सकती है पर वह सदा खाली ही रहती है। उसने हजार बार भोजन को उठाया पर भोजन का स्वाद उसे कभी ज्ञात नहीं हो पाया। इसी प्रकार जब तक चेतना का स्पर्श नहीं होता, चेतना की अनुभूति नहीं होती, तब तक
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