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भाव और अध्यात्मविद्या
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अध्यात्म का स्फुरण नहीं हो सकता। प्रश्न होता है, क्या चेतना की अनुभूति संभव है ? हां, संभव है। असंभव जैसा कुछ भी नहीं है। जब-जब हम रागद्वेषमुक्त क्षण में जीते हैं वही चैतन्य के क्षण का अनुभव है। जब-जब आदमी राग-द्वेषमुक्त होता है, तब पीछे बचती है केवल चेतना । जब-जब आदमी राग-द्वेष में जीता है तब चेतना नीचे चली जाती है, राग-द्वेष की गंदी परत ऊपर छा जाती है। चेतना का अनुभव अतीत में भी हुआ था, आज भी हो सकता है और भविष्य में भी होगा। कभी उसे रोका नहीं जा सकता। जिस व्यक्ति ने अपने चित्त की निर्मलता का विकास किया है, जिसने प्रिय-अप्रिय संबंधों से अलग रहने का अभ्यास किया है, राग-द्वेष के क्षणों को तोड़ने का अभ्यास किया है, उस व्यक्ति को अपने चैतन्य का अनुभव हो सकता है, हुआ है। यह केवलज्ञान का अनुभव है, केवलदर्शन का अनुभव है, संवेदन मुक्त ज्ञान का अनुभव है। हमारा ज्ञान जब इद्रिय संवेदन के साथ चलता है तब चेतना नीचे रह जाती है और संवेदन ऊपर आ जाता है । जब संवेदन ऊपर होता है तब हम इद्रियों के जगत् में जीते है, मन की चंचलता का जीवन जीते हैं, चैतन्य का जीवन नहीं जीते। जब हम संवेदन को नीचे कर देते हैं, शुद्ध चैतन्य ऊपर आ जाता है, तब हम आत्मा का जीवन जीते हैं, अध्यात्म का जीवन जीते हैं।
आज एक विपर्यय हो रहा है। आदमी आत्मा और चैतन्य को पाना चाहता है, आदतों को बदलना चाहता है, इन्द्रियों की उद्दामता पर अंकुश लगाना चाहता है, मन की चंचलता को मिटाना चाहता है पर आत्मा का अनुभव करना नहीं चाहता। अनुभव के बिना दूसरे कार्य कैसे संभव होंगे ? योग के आचार्य ने लिखा है
'मुक्त्वा विविक्तमात्मानं, येऽन्यं द्रव्यमुपासते ।
ते भजन्ते हिमं मूढा, विमुग्नि हिमच्छिदे ॥'
-एक ओर बर्फ है, दूसरी ओर अग्नि जल रही है। कुछ लोग शीत को मिटाना चाहते हैं, पर अग्नि को छोड़कर बर्फ के सामने जाकर बैठते हैं। कैसे मिटेगी ठंड ? एक ओर है आत्मा, दूसरी ओर है मूर्छा पैदा करने वाले इन्द्रियों के विषय और पदार्थ । मूर्छा की सन्निधि में रहने वाला व्यक्ति आत्मा का स्पर्श कैसे कर पाएगा? वह आत्मा या चैतन्य का अनुभव कैसे कर सकेगा ?
जब तक शुद्ध चैतन्य का अनुभव नहीं होगा तब तक मूर्छा को तोड़ा नहीं जा सकता और जब तक मूर्छा नहीं टूटती तब तक स्वाभाविक अनुशासन को जीवन में फलित नहीं किया जा सकता। इद्रिन्यों पर, मन और भावों पर अनुशासन तभी संभव है जब हम चैतन्य की सन्निधि प्राप्त करें, उसके पास बैठे, उसका अनुभव करें। यह अनुशासन जब फलित होता है तब आत्मा का
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