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________________ भाव और अध्यात्मविद्या १०३ अध्यात्मविद्या के द्वारा जो अनुशासन प्राप्त होता है, वह अन्य किसी विद्या से प्रात्त नहीं होता। इन्द्रियों, मन, विचार और भाव पर केवल अध्यात्म के द्वारा ही अनुशासन हो सकता है, अन्य किसी के द्वारा नहीं हो सकता। आदमी को सुलाया जा सकता है, मूर्छा में पटका जा सकता है, इलेक्ट्रोड लगाकर कुछ क्षणों के लिए बदला जा सकता है, क्रोध और आवेग को शांत किया जा सकता है, कामवासना और भूख को रोका जा सकता है, दर्द को शांत किया जा सकता है, पर यह सब होता है अल्पकाल के लिए। यांत्रिक उपकरण व्यक्तित्व का स्थायी रूपान्तरण नहीं कर सकते । अध्यात्म ने ऐसे सूत्र दिए, जिनसे आदमी बदल सकता है, उसमें स्थायी रूपान्तरण घटित हो सकता है । ध्यान का अर्थ है-अध्यात्म का अनुभव करना। जब तक अनुभव नहीं किया जाता, तब तक रूपान्तरण की बात सफल नहीं हो सकती। एक भाई ने पूछा, आज धर्म का इतना प्रसार हो रहा है, फिर भी समाज बदल नहीं रहा है । क्यों? यह प्रश्न एक का नहीं, हजारों-हजारों चिन्तकों का है। जो लोग थोड़ा भी सोचते हैं, वे कहते हैं, आज धर्म का इतना समारंभ हो रहा है, इतने प्रवचन पंडाल, इतने धर्म गुरु, इतने धर्म के प्रवक्ता, इतने बड़े-बड़े धर्म के ग्रन्थ, पर समाज जहां था, वहीं है। व्यक्ति जहां था वहीं खड़ा है। ऐसा क्यों ? यह प्रश्न अस्वाभाविक नहीं है। इतना अध्यात्म हो, अध्यात्म के इतने उपक्रम चले और परिवर्तन न आए, यह कैसे संभव है ? यहां हमारी भ्रान्ति हो रही है, भूल हो रही है। आज धर्म और अध्यात्म का अनुशीलन नहीं हो रहा है। आदमी प्रलोभन से धर्म कर रहा है कि धर्म से कुछ मिल जाए-धन मिल जाए, बेटे, पोते मिल जाएं, मकान मिल जाए आदि-आदि। आदमी धर्म कर रहा है भय को मिटाने के लिए परलोक न बिगड़े, नरक में न जाना पड़े, दुःख न आए, बुढ़ापा खराब न हो आदि-आदि । प्रलोभन और भय के कारण आदमी धर्म के निकट जा रहा है, परंतु वह धर्म को छू नहीं रहा है । जब धर्म का स्पर्श ही नहीं हो रहा है तो उससे परिवर्तन की आशा कैसे की जा सकती है। ध्यान एक प्रयोग है-~-परिवर्तन का। ध्यान एक प्रयोग है— अनुभव करने का । जब तक आदमी अनुभव नहीं कर लेता तब तक कही हुई, सुनी हुई या पढ़ी हुई बात बहुत साथ नहीं देती। एक बार अनुभव हो जाने पर परिवर्तन शुरू हो जाता है। यह एक निश्चित बात है कि जो आदमी ध्यान की साधना से गुजरता है उसमें अनुभव जाग जाता है, फिर उसके लिए उपदेश या प्रवचन आवश्यक नहीं होते । प्रयोग से यदि कोई अनुभव नहीं जागता है तो मानना चाहिए-या तो ध्यान की पद्धति सही नहीं है अथवा व्यक्ति ध्यान पकड़ नहीं पा रहा है । साधक ने पूरी तन्मयता और विधि से ध्यान नहीं किया है या ध्यान कराने वाले कहीं चूके हैं। अन्यथा यह हो ही नहीं सकती कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003084
Book TitleAvchetan Man Se Sampark
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages196
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size9 MB
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