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________________ ६८ परम सूत्र है । आरामतलबी का जीवन असफलता का व्यक्ति को सफल होना है, उसे श्रममय जीवन जीना होगा, होंगे। अवचेतन मन से संपर्क जीवन है । जिस कष्ट सहन करने इस विषय में भगवान् महावीर का कथन बहुत महत्वपूर्ण है - जो श्रमण आरामतलब जीवन जीता है, आलसी जीवन बिताता है, पूरा समय कपड़े और शरीर की सार-संभाल में व्यतीत करता है, ऐसे श्रमण के लिये सुगति दुर्लभ है । वह अपने जीवन में सफल नहीं हो सकता । जो व्यक्ति श्रम करता है, साधनामय जीवन जीता है, तपस्या करता है, कठिनाइयों को झेलता है, सहन करता है, उच्चावच्च अवस्था में सम रहता है, उसे सुगति सुलभ होती है । वह जीवन में सफल होता है और उन्नति के शिखर तक पहुंच जाता है । तओगुणपहाणस्स उज्जुमइ खंतिसंजमरयस्स । परीस हे जिणंतस्स सुलहा सुग्गई तारिसगस्त || सुहसायगस्स समणस्स साया उलगस्स निगामसाइस्स । उच्छोलणा पहोइस्स दुलहा सुग्गई तारिसगस्स ॥ सहिष्णुता को बढ़ाया जा सकता है । जब सहिष्णुता बढ़ती है तब मनोबल बढ़ता है । मनोबल बढ़े बिना सहिष्णुता नहीं बढ़ती और सहिष्णुता बढ़े बिना मनोबल नहीं बढ़ता । आसन के प्रयोग से शरीर को कष्ट अवश्य होता है पर साथ साथ मनोबल भी बढ़ता है, सहिष्णुता भी बढ़ती है। दस दिनों की साधना के बाद जब व्यक्ति शिविर से निकलता है तब वह मनोबल और सहिष्णुता का बल लेकर निकलता है । भय, क्रोध, शोक, चिन्ता, ईर्ष्या इन प्रवृत्तियों से मनोबल टूटता है । साधना करने वाले व्यक्ति में ऐसी प्रेरणाएं जागती हैं कि क्रोध कम हो, भय न लगे, ईर्ष्या और शोक न आए। इन सारी प्रेरणाओं से उसमें वृत्तियों के परिष्कार की भावना जागती है और तब मनोबल वृद्धिंगत होता है। शुद्ध भाव मनोबल को मजबूत बनाता है और मनोबल शुद्ध भाव को अधिक अवकाश देता है । जिस व्यक्ति का मनोबल मजबूत होता है, वह अशुद्ध भावों को रोकने में सक्षम होता है । जो व्यक्ति अशुद्ध भावों को रोक सकता है, उसमें शुद्ध भाव जागते हैं और तब मनोबल सुदृढ़ हो जाता है । दोनों का अन्योन्याश्रय संबंध है । एक दूसरे को परस्पर बल देते हैं । शुद्ध भाव मनोबल के विकास में हेतुभूत बनते हैं और मनोबल के विकास से शुद्ध भाव विकसित होते हैं । हमारा पहला प्रयत्न यह है कि भाव विशुद्धि के लिए मनोबल का विकास किया जाए । गर्मी का मौसम है । पंखे चल रहे हैं । अच्छा तो लगता है कि गर्मी नहीं लग रही है । इतना तो लाभ है । किन्तु प्रतिदिन के अभ्यास ये पंखे की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003084
Book TitleAvchetan Man Se Sampark
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1992
Total Pages196
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size9 MB
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