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अवचेतन मन से संपर्क
'सत्वसार' कहा जाता है । जो सत्वसार होता है वह बहुत सहन कर लेता है । वह बड़ी से बड़ी पीड़ा और मर्माहत घटना को, वेदना को सह लेता है । दूसरे को पता ही नहीं चलने देता, 'ओह' तक नहीं करता । ऐसे सहिष्णु लोग होते हैं, जो बड़े से बड़ा संघर्ष, कठिनाई और आपत्ति को हंसते हुये झेल लेते हैं । दूसरों को यह ज्ञात भी नहीं होता कि वे आपत्ति में रह रहे हैं । वे आत्मा को आत्मा के द्वारा इतना संयत कर लेते हैं कि अपनी वेदना को बाहर फूटने नहीं देते ।
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दूसरे लोग मध्यम मनोबल वाले या राजस् मन वाले होते हैं । वे दूसरों के द्वारा प्रेरित होकर सह लेते हैं । वे वेदना को सहते हैं, कठिनाइयों को सहते हैं; पर उनका स्वयं का मनोबल इतना दृढ़ नहीं होता इसलिए स्खलित भी हो जाते हैं । जब दूसरा उनको ढाढस देता है तब उनका मनोबल मजबूत हो जाता है और वे बड़ी से बड़ी पीड़ा को सहजता से सह लेते हैं । स्थानांग सूत्र में एक प्रतिपादन है कि वीतराग, केवली अथवा गुरु कष्टों को सहन करते हैं । वे सोचते हैं-हम कष्टों को सहन करेंगे तो हमें देखकर अन्यान्य दुर्बल मनोबल वाले साधु-साध्वी भी कष्ट सहन करेंगे और यदि हम कष्टों को सहन करने में पीछे हटेंगे तो दूसरे भी कष्ट सहने में कमजोर हो जायेंगे |
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तीसरे प्रकार के व्यक्ति वे होते हैं, जो अल्प मनोबल के धनी होते हैं । उनमें स्वयं कष्ट झेलने की क्षमता नहीं होती और न वे दूसरों की प्रेरणा से कष्ट झेलने में सक्षम होते हैं। उनका मनोबल बढ़ता ही नहीं । उनके चरण आगे नहीं बढ़ते, जहां रुक गये, वहीं रुक जाते हैं । वे सहन करना जानते ही नहीं । वे न शारीरिक पीड़ा को सहन कर सकते हैं और न मानसिक पीड़ा को सहन कर सकते हैं । वे किसी भी समस्या या घटना को देखकर विचलित हो जाते हैं । इसलिए वे नशीली गोलियां खा लेते हैं और बेहोशी में जाकर उस वेदना को भुला देना चाहते हैं । एक बार कुछ समय के लिए वे भुला देते हैं, पर इससे मनोबल और अधिक क्षीण होता है । वे इतने अधिक असहिष्णु बन जाते हैं कि जिसकी कोई सीमा ही नहीं है ।
पति-पत्नी लड़ने लगे । झगड़ा तीव्र हो गया । आसपास के लोग एकत्रित हो गये । उन्होंने पूछा -लड़ते क्यों हो ? पत्नी ने कहा - अजब स्थिति है । विवाह हुये तीन वर्ष हो गये हैं । पहले वर्ष में मैं 'चन्द्रमुखी' थी। दूसरे वर्ष में 'सूर्यमुखी' हुई और अब तीसरा वर्ष चल रहा है । मैं 'ज्वालामुखी' बन गई हूं । पति बोला- मेरी भी स्थिति विचित्र है । पहले वर्ष में 'प्राणनाथ' था, दूसरे वर्ष में 'नाथ' बना और इस तीसरे वर्ष में पूरा अनाथ बन गया हूं । न पति पत्नी को सहन करना जानता है और न पत्नी पति को सहन करना चाहती है । छोटी-छोटी बातों पर उछल पड़ते हैं । मानो कि भाड़ में
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