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जैन परम्परा का इतिहास तो दुःख अपने आप मिट जाएगा। सुख न लटने की भावना दढ़ होगी तो सुखी बनाने की आवश्यकता ही क्या होगी?
__ संक्षेप में तत्त्व यह है-दुःख-सुख को ही जीवन का ह्रास और विकास मत समझो। संयम जीवन का विकास है और असंयम ह्रास । असंयमी थोड़ों को व्यावहारिक लाभ पहुंचा सकता है, किन्तु वह छलना, क्रूरता और शोषण को नहीं त्याग सकता।
संयमी थोड़ों का व्यावहारिक हित न साध सके, फिर भी वह सबके प्रति निश्छल, दयालु और शोषण-मुक्त रहता है । मनुष्य-जीवन उच्च संस्कारी बने, इसके लिए उच्च वृत्तियां चाहिए; जैसे :
१. आर्जव या ऋजुभाव, जिससे विश्वास बढ़े। २. मार्दव या दयालुता, जिससे मैत्री बढ़े। ३. लाघव या नम्रता, जिससे सहृदयता बढ़े। ४. क्षमा या सहिष्णुता, जिससे धैर्य बढ़े। ५. शौच या पवित्रता, जिससे एकता बढ़े। ६. सत्य या प्रामाणिकता, जिससे निर्भयता बढ़े। ७. माध्यस्थ्य या आग्रहहीनता, जिससे सत्य-स्वीकार की __ शक्ति बढ़े।
किन्तु इन सबको संयम की अपेक्षा है। 'एक ही साधै सब सधै'-संयम की साधना हो तो सब सध जाते हैं, नहीं तो नहीं। जैन विचारधारा इस तथ्य को पूर्णता का मध्य-बिन्दु मानकर चलती है । अहिंसा इसी की उपज है, जो 'जैन विचारणा' की सर्वोपरि देन मानी जाती है।
अहिंसा और मुक्ति-श्रमण-संस्कृति की ये दो ऐसी आलोकरेखाएं हैं, जिनसे जीवन के वास्तविक मूल्यों को देखने का अवसर मिलता है।
जब जीवन का धर्म-अहिंसा या कष्ट-सहिष्णुता और साध्य --मुक्ति या स्वातन्त्र्य बन जाता है, तब व्यक्ति, समाज और राष्ट्र की उन्नति रोके नहीं रुकती। आज की प्रगति की कल्पना के साथ ये दो धाराएं और जुड़ जाएं तो साम्य आयेगा-भोगपरक नहीं, त्यागपरक ; वृत्ति बढ़ेगी-दानमय नहीं, किन्तु अग्रहणमय; नियंत्रण बढ़ेगा - दूसरों का नहीं, किन्तु अपना ।
अहिंसा का विकास संयम के आधार पर हुआ है। जर्मन
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