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जैन संस्कृति
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नहीं होता, अधिकारों का हरण और द्वन्द्व नहीं होता।
सुख मत लूटो और दुःख मत दो-इस उदात्त-भावना में आत्म-विजय का स्वर जो है, वह है ही। उसके अतिरिक्त जगत् की नैसर्गिक स्वतंत्रता का भी महान् निर्देश है।
प्राणी अपने अधिकारों में रमणशील और स्वतंत्र है, यही उनकी सहज सुख की स्थिति है।
सामाजिक सुख-सुविधा के लिए इसकी उपेक्षा की जाती है, किंतु उस उपेक्षा को शाश्वत सत्य समझना भूल से परे नहीं होता।
दस प्रकार का संयम, दस प्रकार का संवर और दस प्रकार का विरमण है, वह सब स्वात्मोमुखी वृत्ति है, या है निवृत्ति, या है निवृत्ति-संवलित प्रवृत्ति।
दस आशंसा के प्रयोग संसारोन्मुखी वृत्ति है । जैन-संस्कृति में प्रमुख वस्तु है-'दृष्टिसम्पन्नता' - सम्यक्-दर्शन । संसारोन्मुखी वृत्ति अपनो रेखा पर और आत्मोन्मुखी वृत्ति अपनी रेखा पर अवस्थित रहती है, तब कोई दुविधा नहीं होती । अव्यवस्था तब होती है, जब दोनों का मूल्यांकन एक ही दृष्टि से किया जाए । संसारोन्मुखी वृत्ति में मनुष्य अपने लिए मनुष्येतर जीवों के जीवन का अधिकार स्वीकार नहीं करते। उनके जीवन का कोई मूल्य नहीं आंकते । दुःख मिटाने और सुखी बनाने की वृत्ति व्यावहारिक है, किंतु क्षुद्र भावना, स्वार्थ और संकुचित वृत्तियों को प्रश्रय देने वाली है। आरंभ और परिग्रह-ये व्यक्ति को धर्म से दूर किए रहते हैं । बड़ा व्यक्ति अपने हित के लिए छोटे व्यक्ति की, बड़ा राष्ट्र अपने हित के लिए छोटे राष्ट्र की निर्मम उपेक्षा करते नहीं सकुचाता।
बड़े से भी कोई बड़ा होता है और छोटे से भी कोई छोटा। बड़े द्वारा अपनी उपेक्षा देख छोटा तिलमिलाता है, किन्तु छोटे के प्रति कठोर बनते वह कुछ भी नहीं सोचता। यहां गतिरोध होता
जैन विचारधारा यहां बताती है-दुःखनिवर्तन और सुख-दान की प्रवृत्ति को समाज की विवशतात्मक अपेक्षा समझो, उसे ध्रुव सत्य मान मत चलो। सुख मत लूटो, दुःख मत दो-इसे विकसित करो। इसका विकास होगा तो 'दुःख मिटाओ, सुखी बनाओ' की भावना अपने आप पूरी होगी । दुःखी न बनाने की भावना बढेगी
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