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जैन साहित्य वाचना देते रहे। फिर एक दिन दूर्बलिका पुष्यमित्र ने आर्यरक्षित से निवेदन किया- "गुरुदेव ! इसे वाचना दूंगा तो मेरा नौवां पूर्व विस्मृत हो जाएगा। अब जो आर्यवर का आदेश हो वही करूं।"
आर्यरक्षित ने सोचा -- 'दुर्बलिका पुष्यमित्र की यह गति है। अब प्रज्ञा-हानि हो रही है । प्रत्येक सूत्र में चारों अनुयोगों को धारण करने की क्षमता रखने वाले अब अधिक समय तक नहीं रह सकेंगे।' इस चिन्तन के पश्चात् उन्होंने आगमों को चार अनुयोगों में विभक्त कर दिया।
आगमों का पहला संस्करण भद्रबाहु के समय में हुआ था और दूसरा संस्करण आर्यरक्षित ने [वीर-निर्वाण ५८३-५६७ में] किया। इस संस्करण में व्याख्या की दुरूहता मिट गई। चारों अनुयोगों में आगमों का विभाग इस प्रकार किया :
१. चरणकरणानुयोग --कालिक सूत्र २. धर्मकथानुयोग
-उत्तराध्ययन,
ऋषि भाषित आदि। ३. गणितानुयोग [कालानुयोग] -- सूर्यप्रज्ञप्ति आदि ४. द्रव्यानुयोग
---दृष्टिवाद लेखन और प्रतिक्रिया
जैन-साहित्य के अनुसार लिपि का प्रारम्भ प्रागैतिहासिक है। प्रज्ञापना में १८ लिपियों का उल्लेख मिलता है । भगवान् ऋषभनाथ ने अपनी पुत्री ब्राह्मी को १८ लिपियां सिखाईं, ऐसा उल्लेख विशेषावश्वकभाष्यवृत्ति, त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र आदि में मिलता है। जैन-सूत्र वर्णित ७२ कलाओं में लेख-कला का पहला स्थान है। भगवान् ऋषभनाथ ने ७२ कलाओं का उपदेश किया तथा असि, मषि और कृषि-ये तीन प्रकार के व्यापार चलाए। इनमें आये हए लेख-कला और मषि शब्द लिखने की परम्परा को कर्म-युग के आरम्भ तक ले जाते हैं। नन्दी-सूत्र में तीन प्रकार का अक्षर-श्रुत बतलाया है। इसमें पहला संज्ञाक्षर है। इसका अर्थ होता है--- अक्षर की आकृति-लिपि। लेख-सामग्री
प्रागैतिहासिक काल में लिखने की सामग्री कैसी थी, यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता। राजप्रश्नीयसूत्र में पुस्तक रत्न
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