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________________ ७८ जैन परम्परा का इतिहास श्वेताम्बर एक पूर्व की परम्परा को देवद्धिगणी तक ले जाते हैं और आगमों के कुछ मौलिक भाग को अब तक सुरक्षित मानते हैं। दिगम्बर वीर-निर्वाण ६८३ वर्ष पश्चात् आगमों का पूर्ण लोप स्वीकार करते हैं। आगम का मौलिक रूप दिगम्बर-परम्परा के अनुसार वीर-निर्वाण के ६८३ वर्ष के पश्चात् आगमों का मौलिक स्वरूप लुप्त हो गया। श्वेताम्बर-मान्यता है कि आगम-साहित्य का मौलिक स्वरूप बड़े परिमाण में लुप्त हो गया किंतु पूर्ण नहीं, अब भी वह शेष है। अंगों और उपांगों की जो तीन बार संकलना हुई, उसमें मौलिक रूप अवश्य ही बदला है। उत्तरवर्ती घटनाओं और विचारणाओं का समावेश भी हुआ है। स्थानांग में सात निह्नवों और नवगणों का उल्लेख इसका स्पष्ट प्रमाण है। प्रश्न-व्याकरण का जो विषय-वर्णन है, वह वर्तमान रूप में उपलब्ध नहीं है। इस स्थिति के उपरान्त भी अंगो का अधिकांश भाग मौलिक है । भाषा और रचना-शैली की दृष्टि से वह प्राचीन है । आयारो रचना शैली की दष्टि से शेष सब अंगों से भिन्न है। आज के भाषाशास्त्री उसे ढाई हजार वर्ष प्राचीन बतलाते हैं। सूत्रकृतांग, स्थानांग और भगवती भी प्राचीन हैं । इसमें कोई सन्देह नहीं, आगम का मूल आज भी सुरक्षित है। अनुयोग अनुयोग का अर्थ है - सूत्र और अर्थ का उचित सम्बन्ध । वे चार हैं -चरणकरणानुयोग, धर्मकथानुयोग, गणितानुयोग, द्रव्यानुयोग। आर्यवज्र तक अनुयोग के विभाग नहीं थे। प्रत्येक सूत्र में चारों अनुयोगों का प्रतिपादन किया जाता था। आर्यरक्षित ने इस पद्धति में परिवर्तन किया। इसके निमित्त उनके शिष्य दुर्बलिका पुष्यमित्र बने। आर्यरक्षित के चार प्रमुख शिष्य थे-दुर्बलिका पुष्यमित्र, फल्गुरक्षित, विन्ध्य और गोष्ठामाहिल । विन्ध्य इनमें मेधावी था। उसने आर्य-रक्षित से प्रार्थना की- "प्रभो ! मुझे सहपाठ में अध्ययन-सामग्री बहुत विलम्ब से मिलती है। इसलिए शीघ्र मिले, ऐसी व्यवस्था कीजिए।" आर्य रक्षित ने उसे आलापक देने का भार दुर्बलिका पुष्यमित्र को सौंपा। कुछ दिन तक वे उसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003083
Book TitleJain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1958
Total Pages158
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size7 MB
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