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________________ जैन साहित्य ७५. जो आगम द्वादशांगी या पूर्वो से उद्धृत किये गए, वे निhढ कहलाते हैं । दशवैकालिक, आचारांग का दूसरा श्रुतस्कंध, निशीथ, व्यवहार, बृहत्कल्प, दशाश्रुतस्कंध-ये निर्मूढ आगम हैं। दशवैकालिक का निर्वहण अपने पुत्र मनक की आराधना के लिए आर्य शय्यम्भव ने किया। शेष आगमों के नि!हक श्रुत-केवली भद्रबाह हैं। प्रज्ञापना के कर्ता श्यामार्य, अनुयोगद्वार के कर्ता आर्यरक्षित और नंदी के कर्त्ता देवद्धिगणी क्षमाश्रमण माने जाते हैं। भाषा की दृष्टि से आगमों को दो युगों में विभक्त किया जा सकता है। ई० पू० ४०० से ई० १०० तक का पहला युग है। इसमें रचित अंगों की भाषा अर्ध-मागधी है। दूसरा युग ई० १०० से ई० ५०० तक का है। इसमें रचित या नियूंढ आगमों की भाषा जैन महाराष्ट्री प्राकृत है। आगम वाचनाएं वीर-निर्वाण की दूसरी शताब्दी में [१६० वर्ष पश्चात्] पाटलिपुत्र में बारह वर्ष का दुर्भिक्ष हुआ। उस समय श्रमण-संघ छिन्न-भिन्न-सा हो गया। बहुत सारे बहुश्रुत मुनि अनशन कर स्वर्गवासी हो गए । आगम-ज्ञानकी शृंखला टूट-सी गई। दुर्भिक्ष मिटा, तब संघ मिला। श्रमणों ने ग्यारह अंग संकलित किए। बारहवें अंग के ज्ञाता भद्रबाहु स्वामी के सिवाय कोई नहीं रहा। वे नेपाल में महाप्राण-ध्यान की साधना कर रहे थे। संघ की प्रार्थना पर उन्होंने बारहवें अंग की वाचना देना स्वीकार कर लिया। पन्द्रह सौ साधु गए। उनमें पांच सौ विद्यार्थी थे और हजार साधु उनकी परिचर्या में नियुक्त थे। प्रत्येक विद्यार्थी-साधु के दो-दो साधु परिचायक थे। अध्ययन प्रारंभ हुआ। लगभग विद्यार्थी-साधु थक गए। एकमात्र स्थूलभद्र बचे रहे। उन्हें दसपूर्व की वाचना दी गई। बहिनों को चमत्कार दिखाने के लिए उन्होंने सिंह का रूप बना लिया। भद्रबाहु ने इसे जान लिया। वाचना बन्द कर दी। फिर बहुत आग्रह करने पर चार पूर्व दिये, पर उनका अर्थ नहीं बताया। स्थूलभद्र पाठ की दृष्टि से अंतिम श्रुतकेवली थे। अर्थ की दृष्टि से अंतिम श्रतकेवली भद्रबाह के बाद दस पूर्व का ज्ञान ही शेष रहा। वज्रस्वामी अन्तिम दशपूर्वधर हुये । वज्रस्वामी के उत्तराधिकारी आर्यरक्षित हुए । वे नौ पूर्व पूर्ण और दसवें पूर्व के २४ यविक जानते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003083
Book TitleJain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1958
Total Pages158
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size7 MB
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