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जैन परम्परा का इतिहास बोली जाती है, इसलिए अर्ध-मागधी कहलाती है। इसमें मागधी और दूसरी भाषाओं-अठारह देशी भाषाओं के लक्षण मिश्रित हैं। इसलिए यह अर्ध-मागधी कहलाती है। भगवान महावीर के शिष्य मगध, मिथिला, कौशल आदि अनेक प्रदेश, वर्ग और जाति के थे। इसलिए जैन-साहित्य की प्राचीन-प्राकृत में देश्य शब्दों की बहुलता है । मागधी और देश्य शब्दों का मिश्रण अर्ध-मागधी कहलाता है। यह जिनदास महत्तर की व्याख्या है, जो सम्भवतः सबसे अधिक प्राचीन है। इसे आर्ष भी कहा जाता है। आचार्य हेमचंद्र ने इसे आर्ष कहा, उसका मूल आगम का ऋषि-भाषित शब्द है । आगमों का प्रामाण्य और अप्रामाण्य ।
केवली, अवधि-ज्ञानी, मनःपर्यव-ज्ञानी, चतुर्दश-पूर्वधर और दश-पूर्वधर की रचना को आगम कहा जाता है। आगम में प्रमुख स्थान द्वादशांगी या गणिपिटक का है। वह स्वतः प्रमाण है। शेष आगम परतः प्रमाण हैं-द्वादशांगी के अविरुद्ध हैं, वे प्रमाण हैं, शेष अप्रमाण । आगम-विभाग
__ आगम-साहित्य प्रणेता की दृष्टि से दो भागों में विभक्त होता. है-अंग-प्रविष्ट और अनंग-प्रविष्ट । भगवान् महावीर के ग्यारह गणधरों ने जो साहित्य रचा, वह अंग-प्रविष्ट कहलाता है । स्थविरों ने जो साहित्य रचा, वह अनंग-प्रविष्ट कहलाता है। बारह अंगों के अतिरिक्त सारा आगम-साहित्य अनंग-प्रविष्ट है। गणधरों के प्रश्न पर भगवान ने त्रिपदी-उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य का उपदेश दिया। उसके आधार पर जो आगम-साहित्य रचा गया, वह अंगप्रविष्ट और भगवान् के मुक्त व्याकरण के आधार पर स्थविरों ने जो रचा, वह अनंग-प्रविष्ट है ।
द्वादशांगी का स्वरूप सभी तीर्थंकरों के समक्ष नियत होता है। अनंग-प्रविष्ट नियत नहीं होता। अभी जो एकादश अंग उपलब्ध है वे सुधर्मा गणधर की वाचना के हैं, इसलिए सुधर्मा द्वारा रचित माने जाते हैं।
अनंग-प्रविष्ट आगम-साहित्य की दृष्टि से दो भागों में बंटता है। कुछेक आगम स्थविरों के द्वारा रचित हैं और कुछेक नियंढ ।
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