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जैन परम्परा का इतिहास
विडाली, व्याघ्री, सिंही आदि अनेक विद्याएं भी सिखाईं।
___ रोहगुप्त ने उसकी चुनौती को स्वीकार किया। राज-सभा में चर्चा का प्रारम्भ हुआ।
पोट्टशाल ने जीव और अजीव-इन दो राशियों की स्थापना की। रोहगुप्त ने जीव, अजीव और नो-जीव नो-अजीव-इन तीन राशियों की स्थापना कर उसे पराजित कर दिया।
रोहगुप्त ने वृश्चिकी, सी, मूषिकी आदि विद्याएं भी विफल कर दीं। उसे पराजित कर रोहगुप्त अपने गुरु के पास आये, सारा घटनाचक्र निवेदित किया। गुरु ने कहा-“राशि दो हैं। तूने तीन राशि की स्थापना की, यह अच्छा नहीं किया। वापस सभा में जा, इसका प्रतिवाद कर।' वे आग्रहवश गुरु की बात स्वीकार नहीं कर सके । गुरु उन्हें 'कुत्रिकापण' में ले गए। वहां जीव मांगा वह मिल गया, अजीव मांगा वह भी मिल गया, तीसरी राशि नहीं मिली। गुरु राज-सभा में गए और रोहगुप्त की पराजय की घोषणा की। इस पर भी उनका आग्रह कम नहीं हुआ। इसलिए उन्हें संघ से अलग कर दिया गया। ७. अबद्धिकवाद
सातवें निह्नव गोष्ठामाहिल थे। आर्यरक्षित के उत्तराधिकारी दुर्बलिका पुष्यमित्र हुए। एक दिन वे विन्ध्य नामक मुनि को कर्मप्रवाद का बन्धाधिकार पढ़ा रहे थे। उसमें कर्म के दो रूपों का वर्णन आया। कोई कर्म गीली दीवार पर मिट्टी की भांति आत्मा के साथ चिपक जाता है-एक रूप हो जाता है और कोई कर्म सूखी दीवार पर मिट्टी की भांति आत्मा का स्पर्श कर नीचे गिर जाता है - अलग हो जाता है।
गोष्ठामाहिल ने यह सुना । वे आचार्य से कहने लगे-'आत्मा और कर्म यदि एक रूप हो जाएं तो फिर वे कभी भी अलग-अलग नहीं हो सकते । इसलिए यह मानना ही संगत है कि कर्म आत्मा का स्पर्श करते हैं, उससे एकीभूत नहीं होते। वास्तव में बन्ध होता ही।' आचार्य ने दोनों दशाओं का मर्म बताया, पर उन्होंने अपना आग्रह नहीं छोड़ा। आखिर उन्हें संघ से पृथक् कर दिया गया।
इन सात निह्नवों में जमाली, रोहगुप्त और गोष्ठामाहिल
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