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________________ भगवान् महावीर शाश्वतवादी धारा पर । इस पद्धति को महावीर ने साम्प्रदायिक अभिनिवेश की संज्ञा दी । महावीर की अनेकान्त दृष्टि और स्याद्वादी निरूपण - शैली का मुख्य प्रयोजन है – सत्य के प्रति अन्याय करने की मनोवृत्ति का विसर्जन । स्याद्वाद एक अनुरोध है, उन सबसे जो सत्य को एकांगी दृष्टि से देखते हैं और आग्रह की भाषा में उसकी व्याख्या करते हैं । महावीर ने स्याद्वाद के माध्यम से शाश्वतवादी तत्त्ववेत्ताओं से अनुरोध किया कि वे अशाश्वतवादी धारा को भी समझने का प्रयत्न करें और अशाश्वतवादी तत्त्ववेत्ताओं से अनुरोध किया कि वे शाश्वतवाद की स्वीकृति का द्वार सदा के लिए बन्द न करें । एकांगिता सत्य को मान्य नहीं है, तब फिर किसी सम्प्रदाय को क्यों मान्य होनी चाहिए ? सम्प्रदाय एक सीमा है । उस सीमा की एक सीमित उपयोगिता है । मनुष्य उपयोगिता को ध्यान में रखकर घर बनाता है - अनन्त को एक सीमा में बांधकर उसमें रखता है । किन्तु जब वह घर में अनन्त आकाश का आरोपण कर लेता है तब उसकी उपयोगिता असत्य में बदल जाती है । धार्मिक जब सम्प्रदाय को ही - अंतिम सत्य मान लेता है तब उसकी उपयोगिता आग्रह में बदल जाती है । वह निरपेक्ष आग्रह ही साम्प्रदायिकता है। महावीर की अहिंसा इसी ईंधन से प्रज्वलित हुई थी । नैतिक मूल्यों को प्रतिष्ठा ५३ भगवान् महावीर का युग क्रियाकांडों का युग था । महाभारत की ध्वंस - लीला का जनमानस पर अभी असर मिटा नहीं था । जनता त्राण की खोज में भटक रही थी । अनेक दार्शनिक उसे परमात्मा की शरण में ले जा रहे थे । समर्पण का सिद्धांत बल पकड़ रहा था । 'श्रमण-परम्परा इसका विरोध कर रही थी । भगवान् पार्श्व के निर्माण के बाद कोई शक्तिशाली नेता नहीं रहा, इसलिए उसका स्वर जनता का ध्यान आकृष्ट नहीं कर पा रहा था । भगवान् महावीर और भगवान् बुद्ध ने उस स्वर को फिर शक्तिशाली बनाया । भगवान् महावीर ने कहा - 'पुरुष ! तेरा त्राण तू ही है । बाहर कहां त्राण ढूंढ रहा है ?' इस आत्मकर्तृत्व की वाणी ने भारतीय जनमानस में फिर एक बार पुरुषार्थ की लौ प्रज्वलित कर दी । श्रमणपरम्परा ने ईश्वर-कर्तृत्व को मान्यता नहीं दी । इसलिए उसमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003083
Book TitleJain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1958
Total Pages158
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size7 MB
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