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________________ ४६ भगवान् महावीर पद्धति में कठोर-चर्या के अंश अवश्य हैं; किन्तु वे अनिवार्य नहीं हैं। भगवान् महावीर ने देखा कि सबकी शक्ति और रुचि समान नहीं होती। कुछ लोगों में तपस्या की रुचि और क्षमता होती है, किन्तु ध्यान की रुचि और क्षमता नहीं होती। कुछ लोगों में ध्यान की रुचि और क्षमता होती है, किन्तु तपस्या की रुचि और क्षमता नहीं होतो । भगवान् महावीर ने अपनी साधना-पद्धति में दोनों कोटि की रुचि और क्षमता का समावेश किया। ध्यान की केक्षा तपस्या की कक्षा से ऊंची है। फिर भी तपस्या साधना के क्षेत्र में सर्वथा मूल्यहीन नहीं है। भगवान् महावीर की साधना-पद्धति का वह महत्त्वपूर्ण अंग है। भगवान् महावीर दीर्घ तपस्वी कहलाते थे। अनगार तप में शूर होते हैं—'तवसूरा अणगारा'-यह जैन परम्परा का प्रसिद्ध वाक्य है। भगवान् महावीर ने केवल उपवास को ही तप नहीं माना । उनकी तप की परिभाषा में ध्यान भी सम्मिलित है। भगवान् महावीर ने अज्ञानमय तप का प्रबल विरोध किया और ज्ञानमय तप का समर्थन । अहिंसा-पालन में बाधा न आए, उतना तप सब साधकों के लिए आवश्यक है। विशेष तप उन्हीं के लिए है, जिनका दैहिक बल या विराग तोव हो। भगवान् महावीर ने दैनिक जीवन की अनेक कक्षाएं प्रतिपादित की । गृहवासी के लिए चार कक्षाएं हैं : १. सुलभ बोधि-यह प्रथम कक्षा है। इसमें न धर्म का ज्ञान होता है और न अभ्यास ही । केवल उसके प्रति अज्ञात अनुराग होता है। सुलभ-बोधि व्यक्ति निकट भविष्य में धर्माचरण की योग्यता पा सकता है। २. सम्यग्-दृष्टि -यह दूसरी कक्षा है। इसमें धर्म का अभ्यास नहीं होता, किन्तु उसका ज्ञान होता है। ३. अणुव्रती-यह तीसरी कक्षा है । इसमें धर्म का ज्ञान और अभ्यास दोनों होते हैं। ४. प्रतिमाधार-यह चौथी कक्षा है । इसमें धर्म का विशेष अभ्यास होता है। मुनि के लिए निम्न दो कक्षाएं हैं : १. संघवासी मुनि - यह पहली कक्षा है । इनमें अहिंसाचरण की प्रधानता है, तपस्या की प्रधानता नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003083
Book TitleJain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1958
Total Pages158
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size7 MB
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