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________________ भगवान् महावीर महावीर जब दीक्षित हुए तब उनकी शिविका को उठाने में सबसे आगे मनुष्य थे । यह अग्रगामिता का अधिकार मनुष्यों को इसलिए प्राप्त था कि महावीर मनुष्य थे। महावीर ने अपना सारा जीवन इस व्याख्या में बिताया कि ईश्वरीय सृष्टि का सर्जक मनुष्य है, पर मानवीय सृष्टि का सर्जक ईश्वर नहीं है। धम की व्यापक धारणा महावीर की धर्म की धारणा बहुत व्यापक थी। उसका कारण उनकी आस्था का अहिंसक परम्परा में विकसित होना है। वैदिक परम्परा में धर्म की स्वीकृति एक विशिष्ट वर्ग के लिए थी। उनके सामने महावीर ने श्रमण-परम्परा के शाश्वत स्वर को बहुत प्रभावी पद्धति से उच्चारित किया। भगवान् ने सब मनुष्यों को अहिंसा के आचरण की प्रेरणा दी। उन्होंने कहा १. धर्म की आराधना में स्त्री-पुरुष का भेद नहीं हो सकता। फलस्वरूप श्रमण, श्रमणी, श्रावक और श्राविका-ये चार तीर्थ स्थापित हुए। २. धर्म की आराधना में जाति-पांति का भेद नहीं हो सकता। फलस्वरूप सभी जातियों के लोग उनके संघ में प्रश्नजित हुए। ३. धर्म की आराधना में क्षेत्र का भेद नहीं हो सकता। वह गांव में भी की जा सकती है और अरण्य में भी की जा सकती है। फलस्वरूप उनके साधु अरण्यवासी कम संख्या में थे। ४. धर्म की आराधना में वेश का भेद नहीं हो सकता। उसका अधिकार श्रमण को भी है, गृहस्थ को भी है । ५. भगवान् ने अपने श्रमणों से कहा-धर्म का उपदेश जैसे पुण्यवान् को दो, वैसे ही तुच्छ को दो । जैसे तुच्छ को दो, वैसे ही पुण्यवान् को दो। इस व्यापक दृष्टिकोण का मूल असाम्प्रदायिकता और जातीयता का अभाव है। महावीर तीर्थ के प्रवर्तक थे। तीर्थ एक सम्प्रदाय है। किन्तु उन्होंने धर्म को सम्प्रदाय के साथ बांधा नहीं। उनकी दृष्टि में जैन सम्प्रदाय की अपेक्षा जैनत्व प्रधान था । जैनत्व का अर्थ है-सम्यक् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003083
Book TitleJain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1958
Total Pages158
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size7 MB
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