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________________ ४४ जैन परम्परा का इतिहास २. अन्तर्-आत्मा यह दूसरी कक्षा है । इस कक्षा में सत्य उद्घाटित हो जाता है कि जैसे दूध में नवनीत व्याप्त होता है, वैसे ही देह में चिन्मय सत्ता व्याप्त है। ३. परम-आत्मा यह तीसरी कक्षा है। इसमें चिन्मय सत्ता पर आई हुई देहरूपी भस्म दूर होने लग जाती है । आत्मा परमात्मा के रूप में प्रकट हो जाता है। आत्मा और परमात्मा मानवीय पुरुषार्थ की प्रक्रिया से वियुक्त नहीं है । भगवान् महावीर के दर्शन में परमात्मा का अस्वीकार नहीं है, उसकी विश्व-सृजनसत्ता का अस्वीकार है। ___भगवान महावीर के अनुसार जगत् अनादि-अनंत है । उसके कर्तृत्व का भार वहन करने के लिए किसी सन्। को जन्म देने की आवश्यकता नहीं है। भगवान् महावीर से स्कंदक संन्यासी ने पूछा--"भंते ! यह जगत शाश्वत है या अशाश्वत ?" भगवान ने कहा-आयुष्मन् ! अस्तित्व की दृष्टि से जगत् शाश्वत है और रूपांतरण की दृष्टि से वह अशाश्वत है । वह अशाश्वत है इस दृष्टि से उसमें जगत्-कर्तृत्व का अंश भी सन्निहित है । महावीर के अनुसार वह जीवों और परमाणु ओं के स्वाभाविक संयोग की प्रक्रिया से सम्पादित होता है। इसी सम्पादन को लक्ष्य में रखकर महान आचार्य हरिभद्रसूरि ने महावीर के दर्शन की ईश्वरवादी दर्शनों से तुलना की है। उन्होंने लिखा है ... 'पारमैश्वर्य युक्तत्वात, आत्मैव मत ईश्वरः। स च कर्तेति निर्दोष, कर्तृवादो व्यवस्थितः॥ --'आत्मा परम ऐश्वर्य-सम्पन्न है । अतः वह ईश्वर है । वह कर्ता है । इस दृष्टि से महावीर का दर्शन कर्तृवादी है।' महावीर ने कर्तृत्व का निरसन नहीं किया। उन्होंने उस कर्तृ-सत्ता का निरसन किया, जिसे समग्र जगत् की निर्माण-वेदिका पर प्रतिष्ठित किया जा रहा था। भगवान् महावीर ने ईश्वरोपासना के स्थान में श्रमणोपासना का प्रवर्तन किया । ईश्वर परोक्ष शक्ति है और वह अगम्य है । उसके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003083
Book TitleJain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1958
Total Pages158
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size7 MB
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